एकादशाहकृत्य-निरूपण, मृत-शय्यादान, गोदान, घटदान, अष्टमहादान, वृषोत्सर्ग, मध्यमषोडशी, उत्तमषोडशी एवं नारायणबलि
गरुडजीने कहा-हे सुरेश्वर ! ग्यारहवें दिनके कृत्य-विधानको भी बताइये और हे जगदीश्वर! वृषोत्सर्गकी विधि भी बताइये ॥१॥
श्रीभगवान्ने कहा-ग्यारहवें दिन प्रातःकाल ही जलाशयपर जाकर प्रयत्नपूर्वक सभी औचंदैहिक क्रिया करनी चाहिये॥२॥
वेद और शास्त्रोंका अभ्यास करनेवाले ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे और हाथ जोड़कर नमस्कार करके उनसे प्रेतकी मुक्तिके लिये प्रार्थना करे॥३॥
आचार्य भी स्नान-संध्या आदि करके पवित्र हो जायँ और ग्यारहवें दिनके लिये उचित कृत्योंका विधिवत् विधान आरम्भ करें॥ ४॥
दस दिनतक मृतकके नाम-गोत्रका उच्चारण मन्त्रोच्चारणके बिना करना चाहिये। ग्यारहवें दिन प्रेतका पिण्डदान समन्त्रक (मन्त्रोंसहित) करना चाहिये ॥ ५॥
हे गरुड! सुवर्णसे विष्णुकी, रजत (चाँदी)से ब्रह्माकी, ताम्रसे रुद्रकी और लौहसे यमकी प्रतिमा बनवानी चाहिये॥६॥
पश्चिमभागमें गंगाजलसे परिपूर्ण विष्णुकलश स्थापित करके उसके ऊपर पीतवस्त्रसे वेष्टित विष्णुकी प्रतिमा स्थापित करे॥७॥
पूर्व-दिशामें दूध और जलसे भरा ब्रह्मकलश स्थापित करके उसपर श्वेत वस्त्रसे वेष्टित ब्रह्माकी स्थापना करे॥८॥
उत्तरकी दिशामें मधु और घृतसे परिपूर्ण रुद्रकुम्भकी स्थापना करके रक्त-वस्त्रवेष्टित श्रीरुद्रकी प्रतिमाको उसपर स्थापित करे ॥९॥
दक्षिण-दिशामें इन्द्रोदक (वर्षाके जल)-से परिपूर्ण यमघटकी स्थापना करे और काले वस्त्रसे वेष्टित करके उसपर यमकी प्रतिमा स्थापित करे॥१०॥
उनके मध्यमें एक मण्डल बनाकर उसपर पुत्र कुशसे निर्मित कुशमयी प्रेतकी प्रतिमा स्थापित करे और दक्षिणाभिमुख एवं अपसव्य होकर तर्पण करे ॥ ११॥
विष्णु, ब्रह्मा, शिव और धर्मराज (यम)-का वेदमन्त्रोंसे तर्पण करे। तब होम करनेके अनन्तर श्राद्ध और दस घट आदिका दान करे ॥ १२॥
तदनन्तर पितरोंको तारनेके लिये गोदान करे। गोदानके समय ‘हे माधव! यह गौ मेरे द्वारा आपकी प्रसन्नताके लिये दी जा रही है, इस गोदानसे आप प्रसन्न होवें’-ऐसा कहे ॥ १३ ॥
प्रेतके द्वारा उपभुक्त आभूषण, वस्त्र, वाहन तथा घृतपूर्ण कांस्यपात्र, सप्तधान्य और प्रेतको प्रिय लगनेवाली वस्तुएँ एवं तिलादि अष्टमहादान जो अन्तकालमें न किये जा सके हों, शय्याके समीप रखकर शय्याके साथ इन सबका भी दान करे ॥ १४-१५ ॥
ब्राह्मणके चरणोंको धोकर वस्त्र आदिसे उनकी पूजा करे और मोदक, पूआ, दूध आदि पक्वान्न उन्हें प्रदान करे ॥ १६॥ तब पुत्र शय्याके ऊपर (प्रेतकी) स्वर्णमयी प्रतिमा (कांचन पुरुषको) स्थापित करे और उसकी पूजा करके यथाविधि मृतशय्याका दान करे ॥१७॥
शय्यादानके समय इस मन्त्रको पढ़े-‘हे विप्र! प्रेतकी प्रतिमासे युक्त और सभी प्रकारके उपकरणोंसे समन्वित यह प्रेतशय्या (मृतशय्या) मैंने आपको निवेदित की है’-इस प्रकार पढ़कर कुटुम्बी ब्राह्मण आचार्यको वह शय्या प्रदान करनी चाहिये। इसके बाद प्रदक्षिणा और प्रणाम करके विसर्जन करना चाहिये ॥ १८-१९ ॥
इस प्रकार शय्यादान, नवक आदि श्राद्ध और वृषोत्सर्गका विधान करनेसे प्रेत परम गतिको प्राप्त होता है ॥ २० ॥
ग्यारहवें दिन विधिपूर्वक हीन अंगवाले, रोगी, अत्यन्त छोटे बछड़ेको छोड़कर सभी शुभ लक्षणोंसे युक्त वृषका विधिपूर्वक उत्सर्ग (वृषोत्सर्ग) करना चाहिये॥ २१॥
ब्राह्मणके उद्देश्यसे लाल आँखवाले, पिंगलवर्णवाले, लाल सींग, लाल गला और लाल खुरवाले, सफेद पेट तथा काली पीठवाले वृषभका उत्सर्जन करना चाहिये ॥ २२॥
क्षत्रियके लिये चिकना और रक्तवर्णवाला, वैश्यके लिये पीतवर्णवाला और शूद्रके लिये कृष्णवर्णका वृषभ (वृषोत्सर्गके लिये) प्रशस्त माना जाता है॥ २३ ॥
जिस वृषभका सर्वांग पिंगलवर्णका हो तथा पूँछ और पैर सफेद हो, वह पिंगल वर्णका वृषभ-पितरोंकी प्रसन्नता बढ़ानेवाला होता है, ऐसा कहा गया है ॥ २४॥
जिस वृषभके पैर, मुख और पूंछ श्वेत हों तथा शेष शरीर लाखके समान वर्णका हो, वह नीलवृष कहा जाता है ॥ २५ ॥
जो वृषभ रक्तवर्णका हो तथा जिसका मुख और पूँछ पाण्डुर वर्णका हो तथा खुर और सींग पिंगल वर्णके हों उसे रक्तनील वृष कहते हैं ॥ २६ ॥
जिस साँडके समस्त अंग एक रंगके हों और पूँछ तथा खुर पिंगलवर्णका हो, उसे नीलपिंग कहा गया है, वह पूर्वजोंका उद्धार करनेवाला होता है ॥ २७ ॥
जो कबूतरके समान रंगवाला हो, जिसके ललाटपर तिलक-सी आकृति हो और सर्वांग सुन्दर हो, वह बभ्रुनील वृषभ कहा जाता है॥ २८॥
जिसका सम्पूर्ण शरीर नीलवर्णका हो और दोनों नेत्र रक्तवर्णके हों, उसे महानील वृषभ कहते हैं-इस प्रकार नीलवृषभ पाँच प्रकारके होते हैं ॥ २९ ॥
स एव पुत्रो मन्तव्यो वृषोत्सर्गं तु यश्चरेत् । गयायां श्राद्धदाता च योऽन्यो विष्ठासमः किल ॥३२॥ (वृषका संस्कार करके) उसे अवश्य मुक्त कर देना चाहिये, घरमें नहीं रखना चाहिये। इसी विषयमें लोकमें एक पुरानी गाथा प्रचलित है— ॥ ३० ॥
बहुत-से पुत्रोंकी कामना करनी चाहिये; ताकि उनमेंसे कोई एक गया जाय अथवा गौरी* कन्याका विवाह (कन्यादान) करे या नील वृषका उत्सर्ग करे ॥ ३१॥
जो पुत्र वृषोत्सर्ग करता है और गयामें श्राद्ध करता है वही पुत्र है, अन्य पुत्र विष्ठाके समान हैं ॥ ३२ ॥
जिसके जो कोई पूर्वज रौरव आदि नरकोंमें यातना पा रहे हों, इक्कीस पीढ़ीके पुरुषोंके सहित वृषोत्सर्ग करनेवाला पुत्र उनको तार देता है॥ ३३॥
स्वर्गमें गये हुए पितर भी इस प्रकार वृषोत्सर्गकी कामना करते हैं ‘हमारे वंशमें कोई पुत्र होगा, जो वृषोत्सर्ग करेगा’। उसके द्वारा किये गये वृषोत्सर्गसे हम सब परम गतिको प्राप्त होंगे। हम लोगोंको सभी यज्ञोंमें श्रेष्ठ वृषयज्ञ (वृषोत्सर्ग) मोक्ष देनेवाला है॥ ३४-३५ ॥
इसलिये पितरोंकी मुक्तिके लिये यथोक्त विधानसे सभी प्रयत्नपूर्वक वृषयज्ञ (वृषोत्सर्ग) करना चाहिये ॥ ३६ ॥ (वृषोत्सर्ग करनेवाला) ग्रहोंकी तत्तद् मन्त्रोंसे स्थापना और पूजा करके होम करे तथा शास्त्रानुसार वृषभकी माता गौओंकी पूजा करे ॥ ३७॥
बछड़ा और बछड़ीको ले जाकर उन्हें कंकण बाँधे और वैवाहिक विधानकी विधिके अनुसार स्तम्भमें उन्हें बाँध दे॥ ३८ ॥
फिर बछड़ा और बछड़ीको रुद्रकुम्भके जलसे स्नान कराये, गन्ध और माल्यसे सम्यक् पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करे ॥ ३९ ॥
तदनन्तर वृषके दक्षिणभागमें त्रिशूल और वामपार्श्वमें चक्र चिह्नित करे। तब उसे छोड़ते हुए हाथ जोड़कर पुत्र इस मन्त्रको पढ़े- ॥४०॥
पूर्वकालमें ब्रह्माके द्वारा निर्मित तुम वृषरूपी धर्म हो, तुम्हारे उत्सर्ग करनेसे तुम भवार्णवसे पार लगाओ॥४१॥
इस मन्त्रसे नमस्कार करके बछड़ा और बछड़ीको छोड़ दे। (भगवान् विष्णुने कहा-इस प्रकार जो वृषोत्सर्ग करता है) मैं सदा उसे वर प्रदान करता हूँ और प्रेतको मोक्ष प्रदान करता हूँ॥ ४२ ॥
अतः वृषोत्सर्गकर्म अवश्य करना चाहिये। (अपनी) जीवितावस्थामें भी वृषोत्सर्ग करनेपर वही फल प्राप्त होता है। पुत्रहीन मनुष्य तो स्वयं (अपने उद्देश्यसे) वृषोत्सर्ग करके सुखपूर्वक परम गतिको प्राप्त करता है॥४३॥
कार्तिक आदि शुभ महीनोंमें, सूर्यके उत्तरायण होनेपर, शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्षकी द्वादशी आदि तिथियोंमें, सूर्य-चन्द्रके ग्रहणकालमें, पवित्र तीर्थमें, दोनों अयन-संक्रान्तियों (मकर-कर्क)-में और विषुवत्-संक्रान्तियों (मेष-तुला)-में वृषोत्सर्ग करना चाहिये॥ ४४-४५ ॥
शुभ लग्न और मुहूर्तमें पवित्र स्थानमें समाहितचित्त होकर विधि जाननेवाले शुभ लक्षणोंसे युक्त ब्राह्मणको बुलाकर जप-होम तथा दानसे अपनी देहको पवित्र करके पूर्वोक्त रीतिसे सभी होमादि कृत्योंका सम्पादन करना चाहिये॥ ४६-४७॥
शालग्रामकी स्थापना करके वैष्णवश्राद्ध करना चाहिये। तदनन्तर अपना श्राद्ध करे और ब्राह्मणोंको दान दे॥४८॥
हे पक्षिन् ! अपुत्रवान् अथवा पुत्रवान् जो भी इस प्रकार वृषोत्सर्ग करता है, (उस वृषोत्सर्गसे) उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं ॥ ४९ ॥
अग्निहोत्रादि यज्ञोंसे और विविध दानोंसे भी वह गति नहीं होती जो वृषोत्सर्गसे प्राप्त होती है॥५०॥
बाल्यावस्था, कौमार, पौगण्ड, यौवन और वृद्धावस्थामें किया गया जो पाप है, वह सब वृषोत्सर्गसे नष्ट हो जाता है, इसमें संशय नहीं है॥५१॥
मित्रद्रोही, कृतघ्न, सुरापान करनेवाला, गुरुपत्नीगामी, ब्रह्महत्यारा और स्वर्णकी चोरी करनेवाला भी वृषोत्सर्गसे पापमुक्त हो जाता है (ये लोग महापापी कहे गये हैं)॥५२॥
इसलिये हे तार्थ्य! सभी प्रयत्न करके वृषोत्सर्ग करना चाहिये। तीनों लोकमें वृषोत्सर्गके समान कोई पुण्यकार्य नहीं है ॥५३॥
पति और पुत्रवाली स्त्री यदि उन दोनोंके सामने मर जाय तो उसके उद्देश्यसे वृषोत्सर्ग नहीं करना चाहिये, अपितु दूध देनेवाली गायका दान करना चाहिये॥५४॥ हे गरुड! जो व्यक्ति (वृषोत्सर्गवाले) वृषभको कन्धे अथवा पीठपर भार ढोनेके काममें प्रयोग करता है, वह प्रलयपर्यन्त घोर नरकमें निवास करता है ॥ ५५ ॥
जो निर्दयी व्यक्ति मुट्ठी (मुक्के) अथवा लकड़ीसे वृषभको मारता है, वह एक कल्पतक यमयातनाको भोगता है ॥५६॥
इस प्रकार वृषोत्सर्ग करके सपिण्डीकरणके पूर्व षोडश श्राद्धोंको करना चाहिये। वह मैं तुमसे कहता हूँ॥५७॥ मृतस्थानमें, द्वारपर, अर्धमार्गमें, चितामें, शवके हाथमें और अस्थिसंचयमें-इस प्रकार छः पिण्ड प्रदान करके दस दिनतक दशगात्रके (दस) पिण्डोंको देना चाहिये ॥५८॥
यह प्रथम मलिनषोडशी श्राद्ध कहा जाता है और दूसरा मध्यमें किया जानेवाला मध्यमषोडशी कहा जाता है उसके विषयमें तुमसे कहता हूँ॥ ५९॥
मध्यमषोडशीमें (मलिनषोडशीकी भाँति ही सोलह पिण्ड होते हैं) पहला पिण्ड भगवान् विष्णुको, दूसरा शिव तथा तीसरा सपरिवार यमको प्रदान करे। चौथा पिण्ड सोमराज, पाँचवाँ हव्यवाह (हव्यको वहन करनेवाले अग्नि), छठा कव्यवाह (कव्य वहन करनेवाले अग्नि) तथा सातवाँ पिण्ड कालको प्रदान करे। आठवाँ पिण्ड रुद्रको, नवाँ पुरुषको, दसवाँ प्रेतको और ग्यारहवाँ पिण्ड विष्णुको प्रदान करे। बारहवाँ पिण्ड ब्रह्माको, तेरहवाँ विष्णुको, चौदहवाँ शिवको, पंद्रहवाँ यमको और सोलहवाँ पिण्ड तत्पुरुषके उद्देश्यसे देना चाहिये। हे खग! तत्त्वविद् लोग इसे मध्यमषोडशी कहते हैं॥६०-६४॥
तदनन्तर प्रतिमासके बारह, पाक्षिक, त्रिपाक्षिक, ऊनषाण्मासिक और ऊनाब्दिक-इन श्राद्धोंको उत्तमषोडशी कहा जाता है। इनके विषयमें मैंने तुम्हें बताया। हे तार्क्ष्य ! इनको ग्यारहवें दिन चरु बनाकर करना चाहिये॥६५-६६ ॥
यावन्न ये अड़तालीस श्राद्ध* प्रेतत्वको नष्ट करनेवाले हैं। जिस मृतकके उद्देश्यसे ये अड़तालीस श्राद्ध किये जाते हैं, वह पितरोंकी पंक्तिके योग्य हो जाता है॥६७॥
इसलिये पितरोंकी पंक्तिमें प्रवेश दिलानेके लिये षोडशत्रयी (मलिन, मध्यम तथा उत्तमषोडशी) करनी चाहिये। इन श्राद्धोंसे विहीन मृतकका प्रेतत्व सुस्थिर हो जाता है और जबतक षोडशत्रयसंज्ञक श्राद्ध नहीं किये जाते, तबतक वह प्रेत अपने द्वारा अथवा दूसरेके द्वारा दी गयी कोई वस्तु प्राप्त नहीं करता॥ ६८-६९ ॥
इसलिये पुत्रको विधानपूर्वक षोडशत्रयीका अनुष्ठान करना चाहिये। पत्नी यदि अपने पतिके उद्देश्यसे इन श्राद्धोंको करती है तो उसे अनन्त श्रेयकी प्राप्ति होती है॥७० ॥
जो स्त्री अपने मृत पतिकी औ@दैहिक क्रिया-क्षयाह-श्राद्ध (वार्षिक श्राद्ध) तथा पाक्षिक श्राद्ध (महालय-श्राद्ध) करती है, वह मेरे द्वारा सती कही गयी है॥७१॥
जो स्त्री पतिके उपकारार्थ पूर्वोक्त श्राद्धोंका अनुष्ठान करनेके लिये जीवन धारण करती है और मरे हुए अपने पतिकी श्राद्धादिरूपसे सेवा करती है, वह पतिव्रता है और उसका जीवन सफल है॥७२॥
यदि कोई प्रमादसे, आगसे जलकर अथवा जलमें डूबकर मरता है, उसके सभी संस्कार यथाविधि करने चाहिये। यदि प्रमादसे, स्वेच्छासे अथवा सर्पके द्वारा मृत्यु हो जाय तो दोनों पक्षोंकी पंचमी तिथिको नागकी पूजा करनी चाहिये॥७३-७४॥
पृथ्वीपर पीठीसे फणकी आकृतिवाले नागकी रचना करके श्वेत पुष्पों तथा सुगन्धित चन्दनसे उसकी पूजा करनी चाहिये ॥ ७५ ॥
धूप और दीप देना चाहिये तथा तण्डुल और तिल चढ़ाना चाहिये। कच्चे आटेका नैवेद्य और दूध अर्पित करना चाहिये॥ ७६ ॥
शक्तिके अनुसार सुवर्णका नाग और गौ ब्राह्मणको दान करना चाहिये। तदनन्तर हाथ जोड़ करके ‘नागराज प्रसन्न हों’-इस प्रकार कहना चाहिये ॥ ७७॥
पुनः उन जीवोंके उद्देश्यसे नारायणबलिकी क्रिया करनी चाहिये। ऐसा करनेसे मृत व्यक्ति सभी पातकोंसे मुक्त हो स्वर्गको प्राप्त होते हैं ॥ ७८॥
इस प्रकार सम्पूर्ण क्रिया करके एक वर्षतक अन्न और जलके सहित घटका दान करना चाहिये अथवा संख्यानुसार जलके सहित पिण्डदान करना चाहिये ॥ ७९ ॥ इस प्रकार ग्यारहवें दिन श्राद्ध करके सपिण्डीकरण करना चाहिये और सूतक बीत जानेपर शय्यादान और पददान करना चाहिये॥८०॥
॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ‘एकादशाहविधिनिरूपण’ नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२॥