दशवाँ अध्याय

मृत्युके अनन्तरके कृत्य, शव आदि नामवाले छः पिण्डदानोंका फल, दाहसंस्कारकी विधि, पंचकमें दाहका निषेध, दाहके अनन्तर किये जानेवाले कृत्य, शिशु आदिकी अन्त्येष्टिका विधान

गरुडजी बोले-हे विभो! अब आप पुण्यात्मा पुरुषोंके शरीरके दाहसंस्कारका विधान बतलाइये और यदि पत्नी सती हो तो उसकी महिमाका भी वर्णन कीजिये॥१॥

श्रीभगवान्ने कहा-हे तार्थ्य! जिन और्ध्वदैहिक कृत्योंको करनेसे पुत्र और पौत्र पितृ-ऋणसे मुक्त हो जाते हैं, उसे बताता हूँ, सुनो ॥२॥

बहुत-से दान देनेसे क्या लाभ? माता-पिताकी अन्त्येष्टिक्रिया भलीभाँति करे, उससे पुत्रको अग्निष्टोम यागके समान फल प्राप्त हो जाता है॥३॥

माता-पिताकी मृत्यु होनेपर पुत्रको शोकका परित्याग करके सभी पापोंसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये समस्त बान्धवोंके साथ मुण्डन कराना चाहिये ॥४॥

माता-पिताके मरनेपर जिसने मुण्डन नहीं कराया, वह संसारसागरको तारनेवाला पुत्र कैसे समझा जाय? ॥ ५ ॥

अतः नख और काँखको छोड़कर मुण्डन कराना आवश्यक है।* इसके बाद समस्त बान्धवोंके सहित स्नान करके धौत वस्त्र धारण करे॥६॥

तब तुरंत जल ले आकर उस जलसे शवको स्नान करावे और चन्दन अथवा गंगाजीकी मिट्टीके लेपसे तथा मालाओंसे उसे विभूषित करे॥७॥

उसके बाद नवीन वस्त्रसे ढककर अपसव्य होकर नाम-गोत्रका उच्चारण करके संकल्पपूर्वक दक्षिणासहित पिण्डदान देना चाहिये॥ ८॥

मृत्युके स्थानपर ‘शव’ नामक पिण्डको मृत व्यक्तिके नाम-गोत्रसे प्रदान करे। ऐसा करनेसे भूमि और भूमिके अधिष्ठातृ देवता प्रसन्न होते हैं ॥९॥

इसके पश्चात् द्वारदेशपर ‘पान्थ’ नामक पिण्ड मृतकके नाम-गोत्रादिका उच्चारण करके प्रदान करे। ऐसा करनेसे भूतादि कोटिमें दुर्गतिग्रस्त प्रेत मृत प्राणीकी सद्गतिमें विघ्न-बाधा नहीं कर सकते॥१०॥

इसके बाद पुत्रवधू आदि शवकी प्रदक्षिणा करके उसकी पूजा करें। तब अन्य बान्धवोंके साथ पुत्रको (शवयात्राके निमित्त) कंधा देना चाहिये॥११॥

अपने पिताको कंधेपर धारण करके जो पुत्र श्मशानको जाता है, वह पग-पगपर अश्वमेधका फल प्राप्त करता है॥ १२॥

पिता अपने कंधे अथवा पीठपर बैठाकर पुत्रका सदा लालन-पालन करता है, उस ऋणसे पुत्र तभी मुक्त होता है जब वह अपने मृत पिताको अपने कंधेपर ढोता है॥ १३॥

इसके बाद आधे मार्गमें पहुँचकर भूमिका मार्जन और प्रोक्षण करके शवको विश्राम कराये और उसे स्नान कराकर भूतसंज्ञक पितरको गोत्र नामादिके द्वारा ‘भूत’ नामक पिण्ड प्रदान करे॥ १४॥

इस पिण्डदानसे अन्य दिशाओंमें स्थित पिशाच, राक्षस, यक्ष आदि उस हवन करनेयोग्य देहकी हवनीयतामें अयोग्यता नहीं उत्पन्न कर सकते ॥ १५ ॥

उसके बाद श्मशानमें ले जाकर उत्तराभिमुख स्थापित करे। वहाँ देहके दाहके लिये यथाविधि भूमिका संशोधन करे॥१६॥

भूमिका सम्मार्जन और लेपन करके उल्लेखन करे। (अर्थात् दर्भमूलसे तीन रेखाएँ खींचे) और उल्लेखन क्रमानुसार ही उन रेखाओंसे उभरी हुई मिट्टीको उठाकर ईशान दिशामें फेंककर उस वेदिकाको जलसे प्रोक्षित करके उसमें विधि-विधानपूर्वक अग्नि-स्थापन करे॥१७॥

पुष्प और अक्षत आदिसे क्रव्यादसंज्ञक अग्निदेवकी पूजा करे और ‘लोमभ्यः (स्वाहा)* इत्यादि अनुवाकसे यथाविधि होम करना चाहिये॥ १८॥

(तब उस क्रव्याद-मृतकका मांसभक्षण करनेवाली-अग्निकी इस प्रकार प्रार्थना करे-) तुम प्राणियोंको धारण करनेवाले, उनको उत्पन्न करनेवाले तथा प्राणियोंका पालन करनेवाले हो, यह सांसारिक मनुष्य मर चुका है, तुम इसे स्वर्ग ले जाओ॥ १९॥

इस प्रकार क्रव्यादसंज्ञक अग्निकी प्रार्थना करके वहीं चन्दन, तुलसी, पलाश और पीपलकी लकड़ियोंसे चिताका निर्माण करे ॥ २० ॥

हे खगेश्वर! उस शवको चितापर रख करके वहाँ दो पिण्ड प्रदान करे। प्रेतके नामसे एक पिण्ड चितापर तथा दूसरा शवके हाथमें देना चाहिये। चितामें रखनेके बादसे उस शवमें प्रेतत्व आ जाता है॥ २१ ॥

प्रेतकल्पको जाननेवाले कतिपय विद्वज्जन चितापर दिये जानेवाले पिण्डको ‘साधक’ नामसे सम्बोधित करते हैं। अतः चितापर साधक नामसे तथा शवके हाथपर ‘प्रेत’ नामसे पिण्डदान करे॥२२॥

इस प्रकार पाँच पिण्ड प्रदान करनेसे शवमें आहुति-योग्यता सम्पन्न होती है। अन्यथा श्मशानमें स्थित पूर्वोक्त पिशाच, राक्षस तथा यक्ष आदि उसकी आहुति-योग्यताके उपघातक होते हैं ॥ २३॥

प्रेतके लिये पाँच पिण्ड देकर हवन किये हुए उस क्रव्याद अग्निको तिनकोंपर रखकर यदि पंचक* न हो तो पुत्र अग्नि प्रदान करे ॥ २४॥

पंचकमें जिसका मरण होता है, उस मनुष्यको सद्गति नहीं प्राप्त होती। (पंचकशान्ति किये बिना) उसका दाह नहीं करना चाहिये अन्यथा अन्यकी मृत्यु हो जाती है ॥ २५॥

धनिष्ठाके उत्तरार्धसे रेवतीपर्यन्त पाँच नक्षत्र पंचकसंज्ञक हैं। इनमें मृत व्यक्ति दाहके योग्य नहीं होता और उसका दाह करनेसे परिणाम शुभ नहीं होता ॥ २६ ॥

इन नक्षत्रोंमें जो मरता है, उसके घरमें कोई हानि होती है, पुत्र और सगोत्रियोंको भी कोई विघ्न होता है ॥ २७॥

अथवा इस पंचकमें भी दाहविधिका आचरण करके मृत व्यक्तिका दाह-संस्कार हो सकता है। (पंचकमरण-प्रयुक्त) सभी दोषोंकी शान्तिके लिये उस दाह-विधिको कहूँगा॥ २८॥

हे ताय! कुशसे निर्मित चार पुत्तलोंको नक्षत्र-मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके शवके समीपमें स्थापित करे ॥ २९॥

तब उन पुत्तलोंमें प्रतप्त सुवर्ण रखना चाहिये और फिर नक्षत्रोंके नाम-मन्त्रोंसे होम करना चाहिये। पुनः ‘प्रेता जयता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु’ (ऋक्० १० । १०३ । १३, युज० १७ । ४६ ) इस मन्त्रसे उन नक्षत्र-मन्त्रोंको सम्पुटित करके होम करना चाहिये ॥ ३० ॥

इसके बाद उन पुत्तलोंके साथ शवका दाह करे, सपिण्डी श्राद्धके दिन पुत्र यथाविधि पंचक शान्ति का अनुष्ठान करे॥३१॥

पंचकदोषकी शान्तिके लिये क्रमशः तिलपूर्णपात्र, सोना, चाँदी, रत्न तथा घृतपूर्ण कांस्यपात्रका दान करना चाहिये॥३२॥

इस प्रकार (पंचक-) शान्ति-विधान करके जो (शव) दाह करता है, उसे (पंचकजन्य) कोई विघ्न-बाधा नहीं होती और प्रेत भी सद्गति प्राप्त करता है॥ ३३॥

इस प्रकार पंचकमें मृत व्यक्तिका दाह करना चाहिये और पंचकके बिना मरनेपर केवल शवका दाह करना चाहिये। यदि मृत व्यक्तिकी पत्नी सती हो रही हो तो उसके दाहके साथ ही शवका दाह करना चाहिये॥ ३४॥

अपने पतिके प्रियसम्पादनमें संलग्न पतिव्रता नारी यदि उसके साथ परलोकगमन करना चाहे * तो (पतिकी मृत्यु होनेपर) स्नान करे और अपने शरीरको कुंकुम, अंजन, सुन्दर वस्त्राभूषणादिसे अलंकृत करे, ब्राह्मणों और बन्धुबान्धवोंको दान दे। गुरुजनोंको प्रणाम करके तब घरसे बाहर निकले। इसके बाद देवालय (मन्दिर) जाकर भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुको प्रणाम करे। वहाँ अपने आभूषणोंको समर्पित करके वहाँसे श्रीफल (नारियल) लेकर लज्जा और मोहका परित्याग करके श्मशानभूमिमें जाय। तब वहाँ सूर्यको नमस्कार करके, चिताकी परिक्रमा करके पुष्पशय्यारूपी चितापर चढ़े और अपने पतिको अपनी गोदमें लिटाये। तदनन्तर सखियोंको श्रीफल देकर दाहके लिये आज्ञा प्रदान करे और शरीरदाहको गंगाजलमें स्नानके समान मानकर अपना शरीर जलाये ॥ ३५-४०॥

गर्भिणी स्त्रीको अपने पतिके साथ अपना दाह नहीं करना चाहिये । प्रसव करके और उत्पन्न बालकका पोषण करनेके अनन्तर उसे सती होना चाहिये॥४१॥

यदि स्त्री अपने मृत पतिके शरीरको लेकर अपने शरीरका दाह करती है तो अग्नि उसके शरीरमात्रको जलाते हैं, उसकी आत्माको कोई पीड़ा नहीं होती ॥ ४२ ॥

धौंके जाते हुए (स्वर्णादि) धातुओंका मल जैसे अग्निमें जल जाता है, उसी प्रकार (पतिके साथ जलनेवाली) नारी अमृतके समान अग्निमें अपने पापोंको जला देती है॥४३॥

जिस प्रकार सत्यपरायण धर्मात्मा पुरुष शपथके समय तपे हुए लोहपिण्डादिको लेनेपर भी नहीं जलता, उसी प्रकार चितापर पतिके शरीरके साथ संयुक्त वह नारी भी कभी नहीं जलती अर्थात् उसे दाहप्रयुक्त कष्ट नहीं होता। प्रत्युत उसकी अन्तरात्मा मृत व्यक्तिकी अन्तरात्माके साथ एकत्व प्राप्त कर लेती है ॥ ४४-४५ ॥

पतिकी । मृत्यु होनेपर जबतक स्त्री उसके शरीरके साथ अपने शरीरको नहीं जला लेती, तबतक वह किसी प्रकार भी स्त्री शरीर प्राप्त करनेसे मुक्त नहीं होती ॥ ४६॥

इसलिये सर्वप्रयत्नपूर्वक मन, वाणी और कर्मसे जीवितावस्थामें अपने पतिकी सदा सेवा करनी चाहिये और मरनेपर उसका अनुगमन करना चाहिये। पतिके मरनेपर जो स्त्री अग्निमें आरोहण करती है, वह (महर्षि वसिष्ठकी पत्नी) अरुन्धतीके समान होकर स्वर्गलोकमें सम्मानित होती है ॥ ४७-४८ ॥

वहाँ वह पतिपरायणा नारी अप्सरागणोंके द्वारा स्तूयमान होकर चौदह इन्द्रोंके राज्यकालपर्यन्त अर्थात् एक कल्प*तक अपने पतिके साथ स्वर्गलोकमें रमण करती है॥४९॥

जो सती अपने भर्ताका अनुगमन करती है, वह अपने मातृकुल, पितृकुल और पतिकुल-इन तीनों कुलोंको पवित्र कर देती है॥ ५० ॥

मनुष्यके शरीरमें साढ़े तीन करोड़ रोमकूप हैं, उतने कालतक वह नारी अपने पतिके साथ स्वर्गमें आनन्द करती है॥५१॥

वह सूर्यके समान प्रकाशमान विमानमें अपने पतिके साथ क्रीड़ा करती है और जबतक सूर्य और चन्द्रकी स्थिति रहती है तबतक पतिलोकमें निवास करती है॥५२॥

इस प्रकार दीर्घ आयु प्राप्त करके पवित्र कुलमें पैदा होकर पतिरूपमें वह पतिव्रता नारी उसी (जन्मान्तरीय) पतिको पुनः प्राप्त करती है॥ ५३॥

जो स्त्री क्षणमात्रके लिये होनेवाले दाह-दुःखके कारण इस प्रकारके सुखोंको छोड़ देती है, वह मूर्खा जन्मपर्यन्त विरहाग्निसे जलती रहती है॥५४॥

इसलिये पतिको शिवस्वरूप जानकर उसके साथ अपने शरीरको जला देना चाहिये। हे तार्क्ष्य! यदि पत्नी सती नहीं होती तो केवल (पतिके) शवका ही दाह करना चाहिये॥ ५५ ॥

शवके आधे या पूरे जल जानेपर उसके मस्तकको फोड़ना चाहिये। गृहस्थोंके मस्तकको काष्ठसे और यतियोंके मस्तकको श्रीफलसे फोड़ देना चाहिये ॥५६॥

पितृलोककी प्राप्तिके लिये उसके ब्रह्मरन्ध्रका भेदन करके उसका पुत्र निम्न मन्त्रसे अग्निमें घीकी |आहुति दे- ॥५७॥

हे अग्निदेव! तुम भगवान् वासुदेव के द्वारा उत्पन्न किये गये हो। पुनः तुम्हारे द्वारा इसकी (तेजोमय दिव्य शरीरकी) उत्पत्ति हो। स्वर्गलोकमें गमन करनेके लिये इसका (स्थूल) शरीर जलकर तुम्हारा हवि हो, एतदर्थ तुम प्रज्वलित होओ॥५८॥

इस प्रकार मन्त्रसहित तिलमिश्रित घीकी आहुति देकर जोरसे रोना चाहिये, उससे मृत प्राणी सुख प्राप्त करता है॥ ५९॥

दाहके अनन्तर स्त्रियोंको स्नान करना चाहिये। तत्पश्चात् पुत्रोंको स्नान करना चाहिये। तदनन्तर मृत प्राणीके गोत्र-नामका उच्चारण करके तिलांजलि देनी चाहिये॥६० ॥

फिर नीमके पत्तोंको चबाकर मृतकके गुणोंका गान करना चाहिये। आगे-आगे स्त्रियोंको और पीछे पुरुषोंको घर जाना चाहिये॥ ६१ ॥

और घरमें पुनः स्नान करके गोग्रास देना चाहिये। पत्तलमें भोजन करना चाहिये और घरका अन्न नहीं खाना | चाहिये॥६२॥

मृतकके स्थानको लीपकर वहाँ बारह दिनतक रात-दिन दक्षिणाभिमुख अखण्ड दीपक जलाना | चाहिये॥६३॥

हे तार्थ्य! (शवदाहके दिनसे लेकर) तीन दिनतक सूर्यास्त होनेपर श्मशानभूमिमें अथवा चौराहेपर मिट्टीके पात्रमें दूध और जल देना चाहिये॥६४॥

काठकी तीन लकड़ियोंको दृढ़तापूर्वक सूतसे बाँधकर (अर्थात् तिगोड़िया बनाकर) उसपर दूध और जलसे भरे हुए कच्चे मिट्टीके पात्र (घड़ा आदि)-को रखकर यह मन्त्र | पढ़े- ॥६५॥

(हे प्रेत!) तुम श्मशानकी आगसे जले हुए हो, बान्धवोंसे परित्यक्त हो, यह जल और यह दूध (तुम्हारे लिये) है, इसमें स्नान करो और इसे पीओ* ॥६६॥

साग्निक (जिन्होंने अग्न्याधान किया हो)-को चौथे दिन अस्थिसंचय करना चाहिये और निषिद्ध वार-तिथिका विचार करके निरग्निकको तीसरे अथवा दूसरे दिन अस्थिसंचय करना चाहिये॥६७।।

(अस्थि-संचयके लिये) श्मशानभूमिमें जाकर स्नान करके पवित्र हो जाय। ऊनका सूत्र लपेटकर और पवित्री धारण करके- ॥६८॥

श्मशानवासियों (भूतादि)-के लिये पुत्रको ‘यमाय त्वा०’ (यजु० ३८।९) इस मन्त्रसे माष (उड़द)-की बलि देनी चाहिये और तीन बार परिक्रमा करनी चाहिये॥६९॥

हे खगेश्वर! इसके बाद चितास्थानको दूधसे सींचकर जलसे सींचे। तदनन्तर अस्थिसंचय करे और उन अस्थियोंको पलाशके पत्तेपर रखकर दूध और जलसे धोये और पुनः मिट्टीके पात्रपर रखकर यथाविधि श्राद्ध (पिण्ड दान) करे ॥ ७०-७१ ॥

त्रिकोण स्थण्डिल बनाकर उसे गोबरसे लीपे। दक्षिणाभिमुख होकर स्थण्डिलके तीनों कोनोंपर तीन पिण्डदान* करे॥७२॥

चिताभस्मको एकत्र करके उसके ऊपर तिपाई (तिगोड़िया) रखकर उसपर खुले मुखवाला जलपूर्ण घट स्थापित करे॥७३॥

इसके बाद चावल पकाकर उसमें दही और घी तथा मिष्टान्न मिलाकर जलके सहित प्रेतको यथाविधि बलि प्रदान करे॥७४॥

हे खग! फिर उत्तरदिशामें पंद्रह कदम जाय और वहाँ गड्ढा बना करके अस्थिपात्रको स्थापित तत्र करे। उसके ऊपर दाहजनित पीड़ा नष्ट करनेवाला पिण्ड प्रदान करे और गड्ढेसे उस अस्थिपात्रको निकालकर उसे लेकर जलाशयको जाय ॥ ७५-७६ ॥

वहाँ दूध और जलसे उन अस्थियोंको बार-बार प्रक्षालित करके चन्दन और कुंकुमसे विशेषरूपसे चर्चित (लेपित) करे॥७७॥ फिर उन्हें एक दोनेमें रखकर हृदय और मस्तकमें लगाकर उनकी परिक्रमा करे तथा उन्हें नमस्कार करके गंगाजीमें विसर्जित करे (छोड़ दे) ॥ ७८ ॥

जिस मृत प्राणीकी अस्थि दस दिनके अन्तर्गत गंगामें विसर्जित हो जाती है, उसका ब्रह्मलोकसे कभी भी पुनरागमन नहीं होता ॥ ७९ ॥

गंगाजलमें मनुष्यकी अस्थि जबतक रहती है, उतने हजार वर्षांतक वह स्वर्गलोकमें विराजमान रहता है । ८० ॥

गंगाजलकी लहरोंको छूकर हवा जब मृतकका स्पर्श करती है तब उस मृतकके पातक तत्क्षण ही नष्ट हो जाते हैं ॥ ८१॥

महाराज भगीरथ उग्र तपसे (गंगादेवीकी) आराधना करके अपने पूर्वजोंका उद्धार करनेके लिये गंगादेवीको ब्रह्मलोकसे (भूलोक) ले आये थे॥ ८२॥

जिनके जलने भस्मीभूत राजा सगरके पुत्रोंको स्वर्गमें पहुँचा दिया, उन गंगाजीका पवित्र यश तीनों लोकोंमें विख्यात है॥ ८३ ॥

जो मनुष्य अपनी पूर्वावस्थामें पाप करके मर जाते हैं, उनकी अस्थियोंको गंगामें छोड़नेपर वे स्वर्गलोक चले जाते हैं॥ ८४॥

किसी महा अरण्यमें सभी प्राणियोंकी हत्या करनेवाला कोई व्याध सिंहके द्वारा मारा गया और जब वह नरकको जाने लगा तभी उसकी अस्थि गंगाजीमें गिर पड़ी, जिससे वह दिव्य विमानपर चढ़कर देवलोकको चला गया॥ ८५-८६॥

इसलिये सत्पुत्रको स्वतः ही अपने पिताकी अस्थियोंको गंगाजीमें विसर्जित करना चाहिये। अस्थिसंचयनके अनन्तर दशगात्रविधिका अनुष्ठान करना चाहिये॥ ८७॥

यदि कोई व्यक्ति विदेशमें या वनमें अथवा चोरोंके भयसे मरा हो और उसका शव प्राप्त न हुआ हो तो जिस दिन उसके निधनका समाचार सुने, उस दिन कुशका पुत्तल बनाकर पूर्वविधिके अनुसार केवल उसीका दाह करे और उसकी भस्मको लेकर गंगाजलमें विसर्जित करे॥८८-८९॥

दशगात्रादि कर्म भी उसी दिनसे आरम्भ करना चाहिये और सांवत्सरिक श्राद्धमें भी उसी (सूचना प्राप्त होनेवाले) दिनको ग्रहण करना चाहिये॥९० ॥

यदि गर्भकी पूर्णता हो जानेके अनन्तर नारीकी मृत्यु हो गयी हो तो उसके पेटको चीरकर बालकको निकाल ले, (यदि वह भी मर गया हो तो) उसे भूमिमें गाड़कर केवल मृत स्त्रीका दाह करे ॥ ९१ ॥

गंगाके किनारे मरे हुए बालकको गंगाजीमें ही प्रवाहित कर दे और अन्य स्थानपर मरे सत्ताईस महीनेतकके बालकको भूमिमें गाड़ दे॥९२॥

इसके बादकी अवस्थावाले बालकका दाहसंस्कार करे और उसकी अस्थियाँ गंगाजीमें विसर्जित करे तथा जलपूर्ण कुम्भ प्रदान करे एवं केवल बालकोंको ही भोजन कराये॥९३॥

गर्भके नष्ट होनेपर (गर्भस्थ शिशुके उद्देश्यसे) उसकी कोई क्रिया नहीं की जाती। पर शिशु (दाँत निकलनेके पूर्वकी अवस्थावाले बच्चे)-के मरनेपर उसके लिये दुग्धदान करना चाहिये। बालक (चूडाकरणसे पूर्व या तीन वर्षकी अवस्थावाले)-के मरनेपर उसके लिये जलपूर्ण घटका दान करना चाहिये और खीरका भोजन कराना चाहिये ॥ ९४॥

कुमारके मरनेपर कुमार बालकोंको भोजन कराना चाहिये और उपनीत पौगण्ड अवस्थाके बच्चेके मरनेपर उसी अवस्थाके बालकोंके साथ ब्राह्मणोंको भोजन कराये॥९५॥

पाँच वर्षकी अवस्थासे अधिक अवस्थावाले बालककी मृत्यु होनेपर, वह चाहे उपनीत (यज्ञोपवीत-संस्कारसम्पन्न) हो अथवा अनुपनीत (जिसका यज्ञोपवीत न हुआ) हो पायस और गुड़के दस पिण्ड क्रमशः प्रदान करने चाहिये॥ ९६ ॥

पौगण्ड अवस्थाके बालककी मृत्यु होनेपर वृषोत्सर्ग तथा महादानकी विधिको छोड़कर एकादशाह तथा द्वादशाहकी क्रियाका सम्पादन करना चाहिये॥९७॥

पिताके जीवित रहनेपर पौगण्डावस्थामें मृत बालकका सपिण्डन श्राद्ध नहीं होता। अतः बारहवें दिन उसका केवल एकोद्दिष्ट श्राद्ध करे॥९८ ॥

स्त्री और शूद्रोंके लिये विवाह ही व्रतबन्ध-स्थानीय संस्कार कहा गया है। व्रत अर्थात् उपनयनके पूर्व मरनेवाले सभी वर्गों के मृतकोंके लिये उनकी अवस्थाके अनुकूल समान क्रिया होनी (करनी) चाहिये॥ ९९ ॥

जिसने थोड़ा कर्म किया हो, थोड़े विषयोंसे जिसका सम्बन्ध रहा हो, कम अवस्था हो और स्वल्प देहवाला हो, ऐसे जीवके मरनेपर उसकी क्रिया भी स्वल्प ही होनी चाहिये॥१०० ॥

किशोर अवस्थाके और तरुण अवस्थाके मनुष्यके मरनेपर शय्यादान, वृषोत्सर्गादि, पददान, महादान और गोदान आदि क्रियाएँ करनी चाहिये ॥ १०१॥

सभी प्रकारके संन्यासियोंकी मृत्यु होनेपर उनके पुत्रों (आदिके) द्वारा न तो उनका दाह-संस्कार किया जाना चाहिये, न उन्हें तिलांजलि देनी चाहिये और न उनकी दशगात्रादि क्रिया ही करनी चाहिये ॥ १०२ ॥

क्योंकि दण्डग्रहण (संन्यासग्रहण) कर लेनेमात्रसे नर ही नारायणस्वरूप हो जाता है। त्रिदण्ड ग्रहण करनेसे (मृत्युके अनन्तर उस) जीवको प्रेतत्व प्राप्त नहीं होता॥ १०३ ॥

ज्ञानीजन तो अपने स्वरूपका अनुभव कर लेनेके कारण सदा मुक्त ही होते हैं। इसलिये उनके उद्देश्यसे | दिये जानेवाले पिण्डोंकी भी उन्हें आकांक्षा नहीं होती॥ १०४॥

अतः उनके लिये पिण्डदान और उदकक्रिया | नहीं करनी चाहिये, किंतु पितृभक्तिके कारण तीर्थश्राद्ध और गयाश्राद्ध करने चाहिये॥ १०५ ॥

हे तार्क्ष्य! हंस, परमहंस, कुटीचक और बहूदक-इन चारों प्रकारके संन्यासियोंकी मृत्यु होनेपर उन्हें पृथिवीमें गाड़ देना चाहिये ॥ १०६ ॥

गंगा आदि नदियोंके उपलब्ध न रहनेपर ही पृथिवीमें गाड़नेकी विधि है, यदि वहाँ कोई महानदी हो तो उन्हींमें उन्हें जलसमाधि दे देनी चाहिये ॥ १०७ ॥

॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ‘दाहास्थिसंचयकर्मनिरूपण’ नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १० ॥

sitaramhkr
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