जीवकी गर्भावस्थाका दुःख, गर्भमें पूर्वजन्मोंके ज्ञानकी स्मृति, जीवद्वारा भगवान से अब आगे दुष्कर्मोंको न करनेकी प्रतिज्ञा, गर्भवाससे बाहर आते ही वैष्णवी मायाद्वारा उसका मोहित होना तथा गर्भावस्थाकी प्रतिज्ञाको भुला देना
गरुडजीने कहा-हे केशव! नरकसे आया हुआ जीव माताके गर्भ में कैसे उत्पन्न होता है? वह गर्भवास आदिके दुःखको जिस प्रकार भोगता है, वह (सब भी) मुझे बताइये॥१॥
भगवान् विष्णुने कहा-स्त्री और पुरुषके संयोगसे वीर्य और रजके स्थिर हो जानेपर जैसे मनुष्यकी उत्पत्ति होती है, उसे मैं तुम्हें कहूँगा ॥२॥
ऋतुकालमें आरम्भके तीन दिनोंतक इन्द्रको लगी ब्रह्महत्याका चतुर्थांश रजस्वला स्त्रियोंमें रहता है, उस ऋतुकालके मध्यमें किये गये गर्भाधानके फलस्वरूप पापात्माओंके देहकी उत्पत्ति होती है॥३॥
रजस्वला स्त्री प्रथम दिन चाण्डाली, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन रजकी (धोबिन) कहलाती है। (तदनुसार उनमें स्पर्शदोष रहता है) नरकसे आये हुए प्राणियोंकी ये ही तीन माताएँ होती हैं ॥ ४॥
दैवकी प्रेरणासे कर्मानुरोधी शरीर प्राप्त करनेके लिये प्राणी पुरुषके वीर्यकणका आश्रय लेकर स्त्रीके उदरमें प्रविष्ट होता है॥५॥
एक रात्रिमें वह शुक्राणु कललके रूपमें, पाँच रात्रिमें बुद्बुदके रूपमें, दस दिनमें बेरके समान तथा उसके पश्चात् मांसपेशियोंसे युक्त अण्डाकार हो जाता है॥६॥
स्त्रियोंने यह वर पाकर कि वे सर्वदा पुरुषका सहवास कर सकें, ब्रह्महत्याका तीसरा चतुर्थांश स्वीकार किया। उनकी ब्रह्महत्या प्रत्येक महीनेमें एक मासमें सिर, दो मासमें बाहु आदि शरीरके सभी अंग, तीसरे मासमें नख, लोम, अस्थि, चर्म तथा लिंगबोधक छिद्र उत्पन्न होते हैं ॥७॥
चौथे मासमें रस, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र ये धातुएँ तथा पाँचवें मासमें भूख-प्यास पैदा होती है। छठे मासमें जरायुमें लिपटा हुआ वह जीव माताकी दाहिनी कोखमें घूमता है॥ ८॥
और माताके द्वारा खाये-पिये अन्नादिसे बढ़े हुए धातुओंवाला वह जन्तु विष्ठा-मूत्रके दुर्गन्धयुक्त गड्ढेरूप गर्भाशयमें सोता है॥९॥
वहाँ गर्भस्थ क्षुधित कृमियोंके द्वारा उसके सुकुमार अंग प्रतिक्षण बार-बार काटे जाते हैं, जिससे अत्यधिक क्लेश होनेके कारण वह जीव मूछित हो जाता है॥ १०॥
माताके द्वारा खाये हुए कडुवे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे तथा खट्टे पदार्थों के अति उद्वेजक संस्पर्शसे उसे समूचे अंगमें वेदना होती है और जरायु (झिल्ली)-से लिपटा हुआ वह जीव आँतोंद्वारा बाहरसे ढका रहता है॥११॥
उसकी पीठ और गरदन कुण्डलाकार रहती है। इस प्रकार अपने अंगोंसे चेष्टा करनेमें असमर्थ होकर वह जीव पिंजरेमें स्थित पक्षीकी भाँति माताकी कुक्षिमें अपने सिरको दबाये हुए पड़ा रहता है ॥ १२॥
भगवान्की कृपासे अपने सैकड़ों जन्मोंके कर्मोंका स्मरण करता हुआ वह गर्भस्थ जीव लम्बी श्वास लेता है। ऐसी स्थितिमें भला उसे कौन-सा सुख प्राप्त हो सकता है ? ॥ १३॥
(मांस-मज्जा आदि) सात धातुओंके आवरणमें आवृत वह ऋषिकल्प जीव भयभीत होकर हाथ जोड़कर विकल वाणीसे उन भगवान्की स्तुति करता है, जिन्होंने उसको माताके उदरमें डाला ॥ १४॥
सातवें महीनेके आरम्भसे ही सभी जन्मोंके कर्मोंका ज्ञान हो जानेपर भी गर्भस्थ प्रसूतिवायुके द्वारा चालित होकर वह विष्ठामें उत्पन्न सहोदर (उसी पेटमें उत्पन्न अन्य) कीड़ेकी भाँति एक स्थानपर ठहर नहीं पाता ॥ १५ ॥
जीव कहता है-मैं लक्ष्मीके पति, जगत्के आधार, अशुभका नाश करनेवाले तथा शरणमें आये हुए जीवोंके प्रति वात्सल्य रखनेवाले भगवान् विष्णुकी शरणमें जाता हूँ॥१६॥
हे नाथ! आपकी मायासे मोहित होकर मैं देहमें अहंभाव तथा पुत्र और पत्नी आदिमें ममत्वभावके अभिमानसे जन्ममरणके चक्करमें फँसा हूँ॥ १७ ॥
मैंने अपने परिजनोंके उद्देश्यसे शुभ और अशुभ कर्म किये, किंतु अब मैं उन कर्मोके कारण अकेला जल रहा हूँ। उन कर्मोंके फल भोगनेवाले पुत्र-कलत्रादि अलग हो गये॥१८॥
यदि इस गर्भसे निकलकर मैं बाहर आऊँ तो फिर आपके चरणोंका स्मरण करूँगा और ऐसा उपाय करूँगा जिससे मुक्ति प्राप्त कर लूँ॥ १९ ॥
विष्ठा और मूत्रके कुँएमें गिरा हुआ तथा जठराग्निसे जलता हुआ एवं यहाँसे बाहर निकलनेकी इच्छा करता हुआ कब बाहर निकल पाऊँगा॥ २०॥
जिस दीनदयालु परमात्माने मुझे इस प्रकारका विशेष ज्ञान दिया है, मैं उन्हींकी शरण ग्रहण करता हूँ जिससे मुझे पुनः संसारके चक्करमें न आना पड़े॥ २१ ॥
अथवा मैं माताके गर्भगृहसे कभी भी बाहर जानेकी इच्छा नहीं करता, (क्योंकि) बाहर जानेपर पापकर्मोंसे पुन: मेरी दुर्गति हो जायगी॥ २२ ॥
इसलिये यहाँ बहुत दुःखकी स्थितिमें रहकर भी मैं खेदरहित होकर आपके चरणोंका आश्रय लेकर संसारसे अपना उद्धार कर लूँगा ॥ २३ ॥
श्रीभगवान् बोले – इस प्रकारकी बुद्धिवाले एवं स्तुति करते हुए दस मासके ऋषिकल्प उस जीवको प्रसूतिवायु प्रसवके लिये तुरंत नीचेकी ओर ढकेलता है॥ २४॥
प्रसूतिमार्गके द्वारा नीचे सिर करके सहसा गिराया गया वह आतुर जीव अत्यन्त कठिनाईसे बाहर निकलता है और उस समय वह श्वास नहीं ले पाता है तथा उसकी स्मृति भी नष्ट हो जाती है ॥ २५ ॥
पृथ्वीपर विष्ठा और मूत्रके बीच गिरा हुआ वह जीव मलमें उत्पन्न कीड़ेकी भाँति चेष्टा करता है और विपरीत गति प्राप्त करके ज्ञान नष्ट हो जानेके कारण अत्यधिक रुदन करने लगता है॥ २६ ॥
गर्भमें, रुग्णावस्थामें, श्मशानभूमिमें तथा पुराणके पारायण या श्रवणके समय जैसी बुद्धि होती है, वह यदि स्थिर हो जाय तो कौन व्यक्ति सांसारिक बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता॥ २७॥
कर्मभोगके अनन्तर जीव जब गर्भसे बाहर आता है तब उसी समय वैष्णवी माया उस पुरुषको मोहित कर देती है॥ २८॥
उस समय मायाके स्पर्शसे वह जीव विवश होकर कुछ बोल नहीं पाता, प्रत्युत शैशवादि अवस्थाओंमें होनेवाले दुःखोंको पराधीनकी भाँति भोगता है ॥ २९॥
उसका पोषण करनेवाले लोग उसकी इच्छाको जान नहीं पाते। अतः प्रत्याख्यान करनेमें असमर्थ होनेके कारण वह अनभिप्रेत (विपरीत) स्थितिको प्राप्त हो जाता है॥ ३०॥
स्वेदज जीवोंसे दूषित तथा विष्ठा-मूत्रसे अपवित्र शय्यापर सुलाये जानेके कारण अपने अंगोंको खुजलानेमें, आसनसे उठनेमें तथा अन्य चेष्टाओंको करनेमें वह असमर्थ रहता है॥ ३१॥
जैसे एक कृमि दूसरे कृमिको काटता है, उसी प्रकार ज्ञानशून्य और रोते हुए उस शिशुकी कोमल त्वचाको डाँस, मच्छर और खटमल आदि जन्तु व्यथित करते हैं ॥३२॥
इस प्रकार शैशवावस्थाका दुःख भोगकर वह पौगण्डावस्थामें भी दुःख ही भोगता है। तदनन्तर युवावस्था प्राप्त होनेपर आसुरी सम्पत्ति को प्राप्त होता है॥ ३३ ॥ तब वह दुर्व्यसनोंमें आसक्त होकर नीच पुरुषोंके साथ सम्बन्ध बनाता है और (वह) कामलम्पट प्राणी शास्त्र तथा सत्पुरुषोंसे द्वेष करता है॥ ३४॥
भगवान्की मायारूपी स्त्रीको देखकर वह अजितेन्द्रिय पुरुष उसकी भावभंगिमासे प्रलोभित होकर महामोहरूप अन्धतममें उसी प्रकार गिर पड़ता है जिस प्रकार अग्निमें पतिंगा॥ ३५॥
हिरन, हाथी, पतिंगा, भौंरा और मछली-ये पाँचों क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, गन्ध तथा रस-इन पाँच विषयोंमें एक-एकमें आसक्ति होनेके कारण ही मारे जाते हैं, फिर एक प्रमादी व्यक्ति जो पाँचों इन्द्रियोंसे पाँचों विषयोंका भोग करता है, वह क्यों नहीं मारा जायगा? ॥ ३६॥
अभीप्सित वस्तुकी अप्राप्तिकी स्थितिमें अज्ञानके कारण ही क्रोध हो आता है और शोकको प्राप्त व्यक्ति देहके साथ ही बढ़नेवाले अभिमान तथा क्रोधके कारण वह कामी व्यक्ति स्वयं अपने नाशहेतु दूसरे कामीसे शत्रुता कर लेता है। इस प्रकार अधिक बलशाली अन्य कामीजनोंके द्वारा वह वैसे ही मारा जाता है, जैसे किसी बलवान् हाथीसे दूसरा हाथी॥ ३७-३८॥
इस प्रकार जो मूर्ख अत्यन्त दुर्लभ मानवजीवनको विषयासक्तिके कारण व्यर्थमें नष्ट कर लेता है, उससे बढ़कर पापी और कौन होगा? ॥३९॥
सैकड़ों योनियोंको पार करके पृथ्वीपर दुर्लभ मानवयोनि प्राप्त होती है। मानवशरीर प्राप्त होनेपर भी द्विजत्वकी प्राप्ति उससे भी अधिक दुर्लभ है। अतिदुर्लभ द्विजत्वको प्राप्तकर जो व्यक्ति द्विजत्वकी रक्षाके लिये अपेक्षित धर्म-कर्मानुष्ठान नहीं करता, केवल इन्द्रियोंकी तृप्तिमें ही प्रयत्नशील रहता है, उसके हाथमें आया हुआ अमृतस्वरूप वह अवसर उसके प्रमादसे नष्ट हो जाता है॥४०॥
इसके बाद वृद्धावस्थाको प्राप्त करके महान् व्याधियोंसे व्याकुल होकर मृत्युको प्राप्त करके वह पूर्ववत् महान् दुःखपूर्ण नरकमें जाता है ॥४१॥
इस प्रकार जन्म-मरणके हेतुभूत कर्मपाशोंसे बँधे हुए वे पापी मेरी मायासे विमोहित होकर कभी भी वैराग्यको प्राप्त नहीं करते ॥ ४२ ॥
हे तार्थ्य! इस प्रकार मैंने तुम्हें अन्त्येष्टिकर्मसे हीन पापियोंकी नरकगति बतायी, अब आगे और क्या सुनना चाहते हो? ॥ ४३ ॥
॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ‘पापजन्मादिदुःखनिरूपण’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ॥६॥