मनुष्य-शरीर प्राप्त करनेकी महिमा, धर्माचरण ही मुख्य कर्तव्य, शरीर और संसारकी दुःखरूपता तथा नश्वरता, मोक्ष-धर्म-निरूपण
गरुडजीने कहा-हे दयासिन्धो! अज्ञानके कारण जीव जन्म-मरणरूपी संसारचक्रमें पड़ता है, यह मैंने सुना। अब मैं मोक्षके सनातन उपायको सुनना चाहता हूँ॥१॥
हे भगवन्! हे देवदेवेश! हे शरणागतवत्सल ! सभी प्रकारके दु:खोंसे मलिन तथा साररहित इस भयावह संसारमें अनेक प्रकारके शरीर धारण करके अनन्त जीवराशियाँ उत्पन्न होती हैं और मरती हैं, उनका कोई अन्त नहीं है॥२-३॥
ये सभी सदा दुःखसे पीडित रहते हैं, इन्हें कहीं सुख नहीं प्राप्त होता। हे मोक्षेश! हे प्रभो! किस उपायके करनेसे इन्हें इस संसृति-चक्रसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है, इसे आप मुझे बतायें ॥४॥
श्रीभगवान्ने कहा-हे तार्क्ष्य! तुम इस विषयमें मुझसे जो पूछते हो, मैं बतलाता हूँ सुनो, जिसके सुननेमात्रसे मनुष्य संसारसे मुक्त हो जाता है॥५॥
सत्य, विज्ञान और आनन्दमय, निष्क्रिय, निरंजन, सर्वव्यापी, अत्यन्त सूक्ष्म, सर्वतोमुख, अनिर्देश्य और अमरस्वरूपको ही निष्कल कहा जाता है। सुखदुःखप्रदैः सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, सर्वेश्वर, निर्मल तथा अद्वय (द्वैतभावरहित) है॥६॥
वह (परमात्मा) स्वत:प्रकाश है, अनादि,अनन्त, निर्विकार, परात्पर, निर्गुण और सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है। यह जीव उसीका अंश है॥७॥
जैसे अग्निसे बहुत-से स्फुलिंग (चिनगारियाँ) निकलते हैं उसी प्रकार अनादिकालीन अविद्यासे युक्त होनेके कारण अनादि कालसे किये जानेवाले कर्मों के परिणामस्वरूप देहादि उपाधिको धारण करके जीव भगवान्से पृथक् हो गये हैं ॥ ८॥
वे जीव प्रत्येक जन्ममें पुण्य और पापरूप सुख-दुःख प्रदान करनेवाले कर्मोंसे नियन्त्रित होकर तत्तत् जातिके योगसे देह (शरीर), आयु और कर्मानुरोधी भोग प्राप्त करते हैं। हे खग! इसके पश्चात् भी पुनः वे अत्यन्त सूक्ष्म लिंगशरीर प्राप्त करते हैं और यह क्रम मोक्षपर्यन्त स्थित रहता है॥९-१०॥
ये जीव कभी स्थावर (वृक्ष-लतादि जड) योनियोंमें, पुनः कृमियोनियोंमें तदनन्तर जलचर, पक्षी और पशुयोनियोंको प्राप्त करते हुए मनुष्ययोनि प्राप्त करते हैं। फिर धार्मिक मनुष्यके रूपमें और पुनः देवता तथा देवयोनिके पश्चात् क्रमशः मोक्ष अत्र प्राप्त करनेके अधिकारी होते हैं ॥ ११॥
उद्भिज्ज, अण्डज, स्वेदज और पिण्डज (जरायुज)-इन चार प्रकारके शरीरोंको सहस्रों बार धारण करके उनसे मुक्त होकर सुकृतवश (पुण्यप्रभावसे) जीव मनुष्य-शरीर प्राप्त करता है और यदि वह ज्ञानी हो जाय तो मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥ १२ ॥
जीवोंकी चौरासी लाख योनियोंमें मनुष्ययोनिके अतिरिक्त अन्य किसी भी योनिमें तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता ॥ १३॥
पूर्वोक्त विभिन्न योनियोंमें हजारों-हजार करोड़ों बार जन्म लेनेके अनन्तर उपार्जित पुण्यपुंजके कारण कदाचित् मनुष्य-योनि प्राप्त होती है॥ १४॥
मोक्षप्राप्तिके लिये सोपानभूत यह दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त करके इस संसृतिचक्रसे जो अपनेको मुक्त नहीं कर लेता, उससे अधिक पापी और कौन होगा॥ १५ ॥
उत्तम मनुष्य-शरीरमें जन्म प्राप्त करके और समस्त सौष्ठवसम्पन्न अविकल इन्द्रियोंको प्राप्त करके भी जो व्यक्ति अपने हितको नहीं जानता वह ब्रह्मघातक होता है ॥ १६॥
शरीरके बिना कोई भी जीव पुरुषार्थ नहीं कर सकता, इसलिये शरीर और धनकी रक्षा करता हुआ इन दोनोंसे पुण्योपार्जन करना चाहिये। मनुष्यको सर्वदा अपने शरीरकी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि शरीर सभी पुरुषार्थोंका एकमात्र साधन है । इसलिये उसकी रक्षाका उपाय करना चाहिये। जीवन धारण करनेपर ही व्यक्ति अपने कल्याणको देख सकता है ॥ १७-१८॥
गाँव, क्षेत्र, धन, घर और शुभाशुभ कर्म पुनः-पुनः प्राप्त हो सकते हैं, किंतु मनुष्य-शरीर पुनः-पुनः प्राप्त नहीं हो सकता॥ १९॥ इसलिये बुद्धिमान् व्यक्ति सदा शरीरकी रक्षाका उपाय करते हैं। कुष्ठ आदिके रोगी भी अपने शरीरको त्यागनेकी इच्छा नहीं करते ॥२०॥
शरीरकी रक्षा धर्माचरणके उद्देश्यसे और धर्माचरण ज्ञानप्राप्तिके उद्देश्यसे (उसी प्रकार) ज्ञान, ध्यान एवं योगकी सिद्धिके लिये और फिर ध्यानयोगसे मनुष्य अविलम्ब मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥ २१ ॥
यदि मनुष्य स्वयं ही अपने आत्माका अहितसे निवारण नहीं कर लेता तो आत्माका दूसरा कौन हितैषी होगा जो आत्माको तारेगा॥ २२ ॥
जो जीव मनुष्यके शरीरमें रहकर इसी जन्ममें नरकरूपी व्याधिकी चिकित्सा नहीं कर लेता, वह परलोकमें जानेपर जहाँ औषध नहीं प्राप्त है, नरक-व्याधिसे पीडित होनेपर फिर क्या कर सकेगा? ॥ २३॥
वृद्धावस्था व्याघ्री (बाघिन)-के समान सामने खड़ी है, फूटे हुए घड़ेके गिरनेवाले जलकी भाँति प्रतिक्षण आयु समाप्त होती जा रही है, रोग शत्रुकी भाँति प्रहार कर रहे हैं, अतः श्रेयःप्राप्तिके लिये जीवको अभ्यास करना चाहिये ॥ २४॥
जबतक दुःख प्राप्त नहीं होता, जबतक आपत्तियाँ घेर नहीं लेतीं और जबतक इन्द्रियोंमें वैकल्य (शिथिलता) नहीं आ जाता, तबतक श्रेयःप्राप्तिके लिये अभ्यास करते रहना चाहिये॥ २५ ॥
जबतक यह शरीर है, तभीतक तत्त्वज्ञानका अभ्यास करना चाहिये। भवनमें आग लग जानेपर कौन ऐसा दुर्बुद्धि मनुष्य है जो कुँआ खोदना प्रारम्भ करता है ॥ २६॥
बहुविध सांसारिक कार्यप्रपंचोंमें व्यस्त रहनेके कारण कालका ज्ञान नहीं होता। यह क्लेशकी बात है कि मनुष्य अपने सुख-दुःख और हितकी बातको नहीं समझता ॥ २७ ॥
संसारमें जीवोंको उत्पन्न होते हुए, रोगादिसे दुःखी होते हुए, मृत्यु प्राप्त करते हुए और आपत्तिग्रस्त तथा दु:खी देखकर भी सांसारिक मनुष्य मोहरूपी मदिराको पीकर (पूर्वोक्त जन्म-मरणादिरूपी विविध क्लेशोंसे) कभी भी भयभीत नहीं होता ॥ २८ ॥
(भौतिक) सम्पत्ति स्वप्नके समान (नश्वर–क्षणभंगुर) है, यौवन भी पुष्पके समान (मुरझा जानेवाला) है, आयु बादलोंमें चमकनेवाली बिजलीके समान चंचल है-यह सब जानते हुए भी मनुष्यको कैसे धैर्य हो सकता है॥ २९॥
एक तो मनुष्यकी सौ वर्षकी आयु ही बहुत थोड़ी है, उसमें भी निद्रा और आलस्यके वशीभूत होकर उसका आधा भाग बीत जाता है और जो शेष है वह भी बाल्यावस्था, रोग और जरामें होनेवाले दुःखसे चला जाता और जो थोड़ा बचा, वह भी निष्फल ही बीत जाता ॥३०॥
प्रारम्भ करनेयोग्य कार्यके विषयमें जो उद्योग नहीं करता और जहाँ ब्रह्मचिन्तन आदिमें जागरूक रहना चाहिये वहाँ वह सोता रहता है। (इसके विपरीत) जहाँ सदा-सदा भय विद्यमान है (उस संसारमें), वहाँ वह विश्वस्त है, ऐसा जो मनुष्य है, वह (अभागा) क्यों नहीं मारा जायगा॥३१॥
जलमें उठनेवाले फेनके समान अतीव क्षणभंगुर देहको प्राप्त करके जीवात्मा उसमें स्थित रहता है। यह शरीर ही उसको प्रियसंवासके रूपमें प्रतीत होता है, किंतु इस अनित्य शरीरमें (जीवात्मा) निर्भय होकर कैसे रह सकता है? ॥ ३२॥
जो अहित करनेवाले विषयभोगोंमें ही हितबुद्धि रखता है तथा अनिश्चित (पुत्र-कलत्र-देह-गेहादि)-को स्थायी समझता है और भौतिक धन-सम्पत्ति आदि अनर्थकारी वस्तुओंमें जो अर्थबुद्धि रखता है, वह अपने परमार्थको नहीं जानता ॥ ३३ ॥
जो ‘यह जगत् किसीका नहीं हुआ’-ऐसा देखते हुए भी गिर रहा है और आत्मज्ञानविषयक वचनोंको सुनते हुए भी जिसे बोध नहीं होता, पढ़ करके भी उसका अर्थ नहीं समझता-ऐसा इसलिये होता है कि जीव भगवान्की मायासे मोहित है* ॥ ३४॥
मृत्यु, रोग और जरारूपी ग्राहोंके द्वारा गम्भीर कालसागरमें डूबते हुए इस जगत्को कोई भी नहीं जान पाता॥ ३५॥ प्रतिक्षण क्षीण होते हुए (बीतते हुए) इस कालकी सूक्ष्म गतिको जीव वैसे ही नहीं जान पाता जैसे कच्चे घड़ेमें स्थित जलके विगलित होनेका ज्ञान नहीं हो पाता ॥ ३६॥
कदाचित् वायुका बाँधना सम्भव हो सकता है, आकाशको खण्ड-खण्ड करनेकी और तरंगोंके गुम्फनकी कल्पना भी सम्भव हो सकती है, परंतु आयुके शाश्वत होनेकी आस्था कथमपि सम्भव नहीं हो सकती॥ ३७॥
जिस कालके द्वारा पृथ्वी जल जाती है, मेरु पर्वत भी चूर-चूर हो जाता है, सागरका जल भी सूख जाता है, उस कालसे मनुष्य-शरीरकी रक्षाकी क्या कथा? ॥ ३८॥
मेरा पुत्र, मेरी पत्नी, मेरा धन, मेरे बान्धव-इस प्रकार मैं-मैं कहते हुए मनुष्यरूपी बकरेको हठपूर्वक कालरूपी भेड़िया मार डालता है॥ ३९॥
यह मैंने कर लिया, यह करना शेष है, यह दूसरा कार्य अभी कुछ करना बाकी है-इस प्रकारकी इच्छासे युक्त मनुष्यको यमराज अपने वशमें कर लेते हैं॥४०॥
कल किये जानेवाले कार्यको आज, अपराह्नमें किये जानेवाले कार्यको पूर्वाह्नमें ही कर लेना चाहिये क्योंकि मनुष्यने अपना कार्य कर लिया है अथवा नहीं-इसकी प्रतीक्षा मृत्यु नहीं करती ॥ ४१ ॥
वृद्धावस्था जिसको रास्ता दिखानेवाली है, अत्युग्र रोग ही जिसके सैनिक हैं, ऐसे मृत्युरूपी शत्रुके तुम सम्मुख स्थित हो फिर (उस प्रबल शत्रुसे) रक्षा करनेवाले (परमात्मा)-की ओर क्यों नहीं देखते अर्थात् उनकी ओर उन्मुख क्यों नहीं होते? ॥४२॥
तृष्णारूपी शूलमें बिंधे हुए और विषयवासनारूपी घीसे सींचे हुए तथा राग-द्वेषरूपी अग्निमें पके हुए मनुष्यको मृत्यु खा जाती है॥४३॥ यह जगत् ऐसा है कि इसमें मृत्यु बालकों, युवकों, वृद्धों और गर्भस्थ जीवों-सभीको ग्रस लेती है॥४४॥
जब जीव अपने देहको भी यहीं छोड़कर यमलोकको चला जाता है तो फिर स्त्री-माता-पिता और पुत्रादिसे किस प्रयोजनसे सम्बन्ध स्थापित किया जाय॥ ४५ ॥
यह संसार दुःखका मूल कारण है, इसलिये इस संसारसे जिसका सम्बन्ध है, वही दुःखी है और जिसने इस जगत्का त्याग किया, वही मनुष्य सुखी है। दूसरा कोई भी, कहीं भी सुखी नहीं है॥ ४६॥
यह संसार सभी प्रकारके दु:खोंका उत्पत्तिस्थान है, सभी आपत्तियोंका घर है और सभी पापोंका आश्रय-स्थान है, इसलिये ऐसे संसारको क्षणमात्रमें त्याग देना चाहिये ॥४७॥
लौह एवं लकड़ीसे बने हुए पाशोंसे बँधा हुआ मनुष्य मुक्त हो सकता है, किंतु पुत्र और पत्नीरूपी पाशोंसे बँधा मनुष्य कभी भी मुक्त नहीं हो सकता॥४८॥
मनुष्य अपने मनको प्रिय लगनेवाले (जगत्में) जितने पदार्थोंसे सम्बन्ध बनाता जाता है, उतने ही अधिक शोकके कीले उसके हृदयमें गड़ते जाते हैं ॥४९॥
यह बड़े खेदकी बात है कि (मनुष्यके देहमें स्थित शब्दस्पर्श-रूप-रस-गन्ध) विषयोंका आहार करनेवाले इन्द्रियरूपी चोरोंने इस लोकके समस्त धनको अपहृत करके इसे नष्ट कर दिया है अर्थात् परलोकके लिये हितकारी धर्मरूपी जो धन है, उसका इन्द्रियोंने हरण कर लिया है॥५०॥
मांसलोभी मत्स्य जैसे बंसीमें लगे हुए लोहेके अंकुशको नहीं जान पाता, उसी प्रकार विषयोंसे प्राप्त होनेवाले (प्रातिभासिक) सुखके लोभसे जीव यमयातनाकी परवा नहीं करता॥५१॥
हे गरुड! जो अपने हित और अहितको नहीं जानते, सदा कुमार्गपर चलनेवाले हैं और मात्र पेट भरनेमें ही जिनका सारा अध्यवसाय रहता है, वे मनुष्य नरकगामी हैं॥५२॥
निद्रा, मैथुन और आहार आदिकी स्वाभाविक प्रवृत्ति सभी प्राणियोंमें समानरूपसे विद्यमान रहती है। उनमें जो (वास्तविक हित-अहितको जाननेवाला) ज्ञानवान् है, वह मनुष्य कहा जाता है और उस ज्ञानसे जो शून्य है, वह पशु कहलाता है॥ ५३॥
मूर्ख मनुष्य प्रात:काल मल-मूत्रोंके वेगसे, मध्य दिनमें क्षुधा और तृषासे तथा रात्रिमें कामक्रीडा और निद्रासे बाधित रहते हैं ॥५४॥
हाय! यह खेदकी बात है कि अज्ञानसे मोहित होकर सभी जीव अपनी देह, धन, पत्नी आदिमें आसक्त होकर बार-बार पैदा होते हैं और मर जाते हैं, इसलिये (देह-गेह, पुत्र-कलत्र आदिके साथ) सदा आसक्तिका त्याग कर देना चाहिये और यदि (अपने विवेकबलसे) उसका सर्वथा त्याग न हो सके तो (उस आसक्तिभावको देह-गेहादिसे हटाकर) महापुरुषोंके साथ सम्बन्ध बनाना चाहिये; क्योंकि संत पुरुष संसारासक्तिरूपी रोगके भेषज हैं ॥५५-५६॥
सत्संग और विवेक-ये दोनों ही व्यक्तिके दो निर्मल नेत्र हैं। जिस व्यक्तिके पास ये नहीं हैं, वह अंधा है, वह अंधा मनुष्य कुमार्गगामी क्यों नहीं होगा? ॥ ५७॥
अपने-अपने वर्ण और आश्रमके लिये शास्त्रबोधित आचारोंका पालन करनेमें संलग्न रहनेवाले सभी मनुष्य यदि परम धर्म (भगवान्के चरणोंमें स्वारसिक प्रीति सम्पादन-साधनीभूत भगवद्भक्ति)-को नहीं जानते तो वे दम्भाचारी व्यर्थमें नष्ट हो जाते हैं॥५८॥
कुछ लोग अनेक प्रकारकी क्रियाओंको करनेका प्रयत्न करते हैं और कुछ अन्य व्रत, उपवास आदिमें संलग्न रहते हैं, अज्ञानसे आवृत आत्मावाले कुछ लोग ढोंगी बनकर विचरण करते हैं ॥ ५९॥
कर्मकाण्डमें आस्था रखनेवाले मनुष्य शास्त्रबोधित नाममात्रकी फलश्रुतियोंसे संतुष्ट हो करके मन्त्रोच्चारण और होमादि कृत्योंसे तथा यज्ञसे विस्तृत विधानोंसे भ्रान्त रहते हैं, उन्हींमें उलझे रहते हैं ॥६० ॥
मेरी मायासे विमोहित होकर शरीरको सुखानेवाले मूर्खलोग एकभुक्त, उपवास आदि व्रतोंका आचरण करके परोक्ष (परमगति)-को प्राप्त करना चाहते हैं॥६१॥
शरीरको दण्ड देनेमात्रसे क्या अविवेकी पुरुषोंको मुक्ति प्राप्त हो सकती है? वल्मीक (बाँबी)-को ताडन करनेमात्रसे क्या कहीं महासर्पकी मृत्यु होती है ? ॥ ६२॥
बड़ी लम्बी जटाओंके भारको ढोनेवाले और मृगचर्म आदिसे युक्त दाम्भिक पुरुष (साधु पुरुषोंका) वेष धारण करके ज्ञानीकी भाँति ही लोकमें भ्रमण करते हैं और लोगोंको भी भ्रमित करते हैं॥६३ ॥
सांसारिक सुख (विषयासक्ति)-में आसक्त जो व्यक्ति ‘मैं ब्रह्मज्ञानी हूँ’, ऐसा कहता है वह कर्ममार्ग तथा ब्रह्मज्ञानमार्ग-दोनों मार्गोंसे भ्रष्ट हो जाता है, उसे चाण्डालकी भाँति छोड़ देना चाहिये॥६४॥
संसारमें, घरमें और अरण्यमें लज्जा त्यागकर समानरूपसे नग्न होकर गर्दभ आदि पशु भी विचरण करते हैं तो क्या इस (आचरण)-से वे (संसारसे) विरक्त हो जाते हैं ? ॥ ६५ ॥
यदि मिट्टी और भस्मके धारण करनेमात्रसे मनुष्य मुक्त हो जाय तो मिट्टी और भस्ममें शयन करनेवाला वह कुत्ता भी क्या मुक्ति प्राप्त कर लेगा?॥६६॥
घासपात और जलका आहार करनेवाले तथा निरन्तर जंगलमें निवास करनेवाले शृगाल, चूहे तथा मृग आदि पशु भी क्या तपस्वी-योगी हो जाते हैं अर्थात् अन्न छोड़ देने, ग्राम या नगरमें निवास छोड़कर वनमें रहनेमात्रसे कोई संन्यासी नहीं हो जाता॥ ६७॥
मण्डूक (मेढक) और मत्स्य आदि जलचर जीव जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त गंगादि नदियोंमें निवास करते हैं तो क्या वे योगी हो जाते हैं? ॥ ६८॥
कबूतर शिलवृत्ति (कंकड़)-का आहार करनेवाले हैं तथा चातक कभी भी भूमिपर स्थित जलको नहीं पीते तो क्या इससे वे व्रती हो जाते हैं ? ॥ ६९ ॥
इसलिये हे खगेश्वर! पूर्वोक्त सम्पूर्ण कर्मानुष्ठान केवल लोकरंजनमात्रके लिये हैं। मोक्षका कारण तो साक्षात् तत्त्वज्ञान ही है॥७०॥
हे खग! षड्दर्शनरूपी महाकूपमें पड़े हुए मनुष्यरूपी पशु परमार्थको नहीं जानते हैं; क्योंकि वे पशुपाश से नियन्त्रित रहते हैं ॥७१ ॥
वेद और शास्त्ररूपी घोर समुद्रमें इधर-उधर ले जाये जाते हुए कुतार्किक व्यक्ति षडूर्मियों से ग्रस्त होकर स्थित रहते हैं ।। ७२ ।।
वेद-शास्त्र और पुराणोंको जाननेवाला भी जो मनुष्य परमार्थको नहीं जानता, विडम्बनाग्रस्त उसका पूर्वोक्त सम्पूर्ण ज्ञान कौएके काँव-काँव करने-जैसा है॥७३॥
परम तत्त्वसे पराङ्मुख जीव यह ज्ञान है, यह ज्ञेय है, इसी चिन्तासे व्याकुल होकर रात-दिन शास्त्रोंका अध्ययन करते हैं ॥७४॥
काव्योचित अलंकारोंसे सुशोभित गद्य वाक्य-रचना या छन्दोबद्ध कविताकी रचना करनेपर भी विषयोपभोगके प्रति लालायित इन्द्रियोंवाले तत्त्वज्ञानरहित मूढ व्यक्ति नाना चिन्ताओंके कारण दुःखी रहते हैं ॥ ७५ ॥
परम तत्त्वकी प्राप्ति तो अन्य प्रकारसे होती है, किंतु लोग अन्य प्रकारके उपाय करके क्लेश प्राप्त करते हैं। शास्त्रका भाव तो कुछ और होता है परंतु वे उसकी व्याख्या कुछ दूसरे प्रकारसे करते हैं ॥७६॥
कुछ अहंकारी व्यक्ति गुरूपदेश आदिको प्राप्त न करके भी उन्मनीभावके विषयमें कहते हैं, पर वे स्वयं उसका अनुभव नहीं करते॥७७॥
बहुत-से लोग वेद और शास्त्रका अध्ययन तो करते हैं और परस्पर एक-दूसरेको बोध भी कराते हैं, तात्पर्य समझाते हैं, पर वे परम तत्त्वके विषयमें उसी प्रकार कुछ नहीं जानते जिस प्रकार दर्वी (कलछी) पाकरस (भोजन आदि)-को नहीं जानती ॥ ७८ ॥
पुष्पको धारण तो सिर करता है किंतु उस पुष्पकी गन्धको नासिका ही जानती है, इसी प्रकार वेद और शास्त्रका अध्ययन तो लोग करते हैं, किंतु वेद और शास्त्रके भावका बोध करनेवाला दुर्लभ है॥ ७९ ॥
मूर्ख मनुष्य अपने हृदयमें स्थित परम तत्त्वको-परमात्माके अंशको नहीं जानता और उसे जाननेके लिये शास्त्रोंके अध्ययनमें उसी प्रकार भटकता फिरता रह जाता है, जैसे कोई मूर्ख ग्वाला अपनी कोखमें बकरेको पकड़े रखनेपर भी उसको खोजनेके लिये कुँएमें देखता है॥ ८० ॥
संसारके मोहका नाश करनेके लिये शास्त्रके शब्दोंके अर्थको जाननामात्र पर्याप्त नहीं है। दीपककी बातसे कभी भी अन्धकारकी निवृत्ति नहीं हो सकती॥ ८१ ॥
बुद्धिहीन मनुष्यका पढ़ना अन्धे व्यक्तिके दर्पण देखनेके समान व्यर्थ है। अतः बुद्धिमान् व्यक्तिको ही शास्त्रीय तत्त्वज्ञानका लक्षण हो सकता है अर्थात् बुद्धिमान्को ही तत्त्वज्ञान लक्षित हो सकता है॥ ८२ ॥
जो यह ज्ञान यहाँ है, इसे जानना चाहिये-इस प्रकार बुद्धि करके (शास्त्रमें प्रतिपाद्य सब कुछ) सुनना चाहता है, वह हजार दिव्य वर्षोंकी आयु प्राप्त करके भी शास्त्रोंका अन्त प्राप्त नहीं कर सकता ॥ ८३॥
अनेक शास्त्र हैं, आयु अत्यल्प है, जिसमें करोड़ों विघ्न हैं, इसलिये जैसे हंस जलके मध्यसे दूधको ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् व्यक्तिको भी शास्त्रके सारतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ॥ ८४॥
वेदशास्त्रोंका अभ्यास कर वहाँसे तत्त्वज्ञान प्राप्त करके बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि जैसे धान चाहनेवाला व्यक्ति (धान ग्रहण करके) पलाल (पुआल)-को छोड़ देता है, उसी तरह उसे भी अन्य सभी शास्त्रोंको छोड़ देना चाहिये। ८५ ॥
जैसे अमृतसे तृप्त व्यक्तिके लिये भोजनकी कोई आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार हे तार्थ्य! तत्त्वज्ञको शास्त्रसे कोई प्रयोजन नहीं होता॥८६॥
हे विनतात्मज! न वेदाध्ययनसे मुक्ति प्राप्त होती है और न शास्त्रोंके अध्ययनसे ही। मोक्षकी प्राप्ति ज्ञानसे ही होती है, किसी दूसरे उपायसे नहीं ॥ ८७ ॥
जिस प्रकार मुक्तिके लिये न तो आश्रमधर्मका अनुष्ठान कारण है, न दर्शनोंका अध्ययन कारण है, उसी प्रकार (श्रौत-स्मार्त) कर्म भी कारण नहीं है। मात्र ज्ञान ही मोक्षका उपाय है॥ ८८ ॥
गुरुका वचन ही मोक्ष देनेवाला है, अन्य सब विद्याएँ विडम्बनामात्र हैं। लकड़ीके हजारों भारोंकी अपेक्षा एक संजीवनी ही श्रेष्ठ है ॥ ८९॥
कर्मकाण्ड और वेदशास्त्रादिके अध्ययनरूपी परिश्रमसे रहित केवल गुरुमुखसे प्राप्त अद्वैतज्ञान ही कल्याणकारी कहा गया है, अन्य करोड़ों शास्त्रोंको पढ़नेसे कोई लाभ नहीं ॥९० ॥
वेदादि आगम शास्त्रोंका अध्ययन तथा विवेक-इन दो साधनोंसे ज्ञानकी प्राप्ति होती है। आगमसे शब्दब्रह्मका ज्ञान प्राप्त होता है और विवेकसे परब्रह्मका ज्ञान प्राप्त होता है ॥ ९१॥
कई विद्वान् अद्वैतको वास्तविक परमतत्त्व स्वीकार करते हैं और कुछ अन्य विद्वज्जन द्वैततत्त्वकी ही प्रतिष्ठा चाहते हैं। किंतु द्वैत और अद्वैतसे पृथक् सभीके लिये समानरूपसे स्वीकार्य परमतत्त्वको कोई नहीं जानता ॥ ९२ ॥
‘न मम’ (मेरा नहीं है) और ‘मम’ (मेरा है)-ये दो पद (भावनाएँ) ही बन्धन और मोक्षके कारण हैं । (देह-गेह और पुत्र-कलत्रादिमें) ममबुद्धि करनेसे प्राणी बन्धनको प्राप्त होता है और ‘मेरा नहीं है’, इस प्रकारकी भावना करनेसे मुक्त होता है ॥ ९३ ॥
कर्म वही है, जो बन्धका हेतु नहीं होता तथा विद्या वही है, जो मोक्ष प्रदान करा दे और इससे अतिरिक्त कर्म केवल श्रममात्रके हेतु हैं, जो शरीरके लिये क्लेशप्रद हैं तथा अन्य प्रकारकी विद्या शिल्पचातुर्यमात्र है ॥ ९४॥
जबतक कर्म किये जाते हैं, जबतक संसारमें आसक्ति रहती है, जबतक इन्द्रियोंका चांचल्य बना रहता है, तबतक तत्त्वज्ञानकी बात ही कहाँ हो सकती है ? ॥ ९५॥
जबतक देहाभिमान (देहको अपना स्वरूप मानना) है, जबतक ममता रहती है, जबतक प्रयत्नोंका वेग रहता है, जबतक संकल्पकी कल्पना होती रहती है, जबतक मन स्थिर नहीं हो जाता, जबतक शास्त्रका चिन्तन नहीं किया जाता तथा जबतक गुरुकी कृपा नहीं प्राप्त होती, तबतक तत्त्वज्ञानकी चर्चा ही कहाँ होती है ? ॥९६-९७ ॥
तप, व्रत, तीर्थ, जप, होम और पूजा आदि सत्कर्मोंका अनुष्ठान तथा वेद, शास्त्र और आगमकी कथा तभीतक उपयोगी है, जबतक जीवको तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता ॥९८ ॥
इसलिये हे तार्क्ष्य! यदि अपने मोक्षकी इच्छा हो तो सर्वदा सम्पूर्ण प्रयत्नोंका सभी अवस्थाओंमें निरन्तर अनुष्ठान करके तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिमें संलग्न रहना चाहिये ॥ ९९ ॥
जो प्राणी (आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक) तापत्रयसे सदा संतप्त रहता है, उसे मोक्षवृक्षकी छायाका आश्रयण करना चाहिये, जिस (मोक्षवृक्ष)-का पुष्प धर्म और ज्ञानस्वरूप है तथा फल स्वर्ग एवं मोक्ष है ॥ १०० ॥
इसलिये श्रीगुरुमुखसे आत्मतत्त्वविषयक ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। (ज्ञान हो जानेपर) प्राणी इस घोर संसारबन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है ॥ १०१॥
हे तार्क्ष्य! मैं तत्त्वज्ञानी पुरुषके द्वारा किये जानेवाले अन्तिम कृत्यके विषयमें तुम्हें बताता हूँ, सुनो, जिस उपायको करके जीवको ब्रह्मनिर्वाणसंज्ञक मोक्षकी प्राप्ति होती है॥ १०२॥
अन्तकालके आ जानेपर पुरुष भय छोड़कर अनासक्तिरूपी शस्त्रसे देह-गेहादि विषयक ममत्वको काट डाले ॥१०३॥
वह धीरपुरुष घरसे निकलकर पवित्र तीर्थके जलमें स्नान करके पवित्र और एकान्त देशमें विधिवत् आसन लगाकर बैठ जाय॥ १०४॥
और शुद्ध परम त्रिवृत् ब्रह्माक्षर अर्थात् ओंकारका मनसे अभ्यास करे तथा ब्रह्मबीजस्वरूप ओंकारका निरन्तर स्मरण करके श्वासको जीतकर मनको नियन्त्रित करे॥१०५॥
बुद्धिरूपी सारथिकी सहायतासे मनरूपी लगामके द्वारा इन्द्रियोंको विषयोंसे निगृहीत कर ले और कर्मोंके द्वारा आक्षिप्त मनको बुद्धिकी सहायतासे शुभ अर्थमें अर्थात् परमब्रह्मके चिन्तनमें लगा दे॥१०६॥
मैं ब्रह्म हूँ, मैं परम धाम हूँ और परम पदरूपी ब्रह्म मैं हूँ-ऐसी समीक्षा करके अपनी आत्माको निष्कल परमात्मामें लगा दे और ‘ओम्’ इस एकाक्षर ब्रह्मका उच्चारण करता हुआ तथा मेरा स्मरण करता हुआ जो मनुष्य देह-त्याग करता है, वह इस संसारसे तर जाता है और परमगति प्राप्त करता है॥१०७-१०८॥
मान और मोहसे रहित तथा आसक्तिसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंको जीत लेनेवाले, नित्य अध्यात्मचिन्तन करनेवाले, सभी प्रकारकी कामनाओंसे निवृत्ति प्राप्त कर लेनेवाले, सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंसे मुक्त ज्ञानी पुरुष उस शाश्वत अविनाशी परमपदको प्राप्त होते हैं ॥ १०९॥
जो व्यक्ति राग और द्वेषरूपी मलोंका अपहरण करनेवाले ज्ञानरूप जलाशय और सत्यस्वरूप जलवाले मानसतीर्थमें स्नान करता है, वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥ ११० ॥
जो प्रौढ़ वैराग्यको धारण करके अन्य भावोंका परित्याग कर केवल मविषयक भावनाके द्वारा मेरा भजन करता है, ऐसा पूर्ण दृष्टि रखनेवाला अमलान्तरात्मा संत ही मोक्षको प्राप्त होता है॥ १११ ॥
‘तीर्थमें मृत्यु हो जाय’-इस उत्कण्ठासे उत्सुक होकर जो अपने घरका परित्याग करके तीर्थमें निवास करता है और मुक्तिक्षेत्रमें मरता है, वही मोक्ष प्राप्त करता है॥ ११२ ॥
अयोध्या, मथुरा, माया (कनखल-हरिद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका और द्वारावतीपुरी-ये सात पुरियाँ मोक्ष देनेवाली हैं। हे तार्थ्य! मैंने सनातन मोक्षधर्मको तुम्हें बता दिया; ज्ञान और वैराग्यके सहित इसे सुनकर पुरुष मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ११३-११४॥
तत्त्वज्ञ पुरुष मोक्ष प्राप्त करते हैं, (सकाम धर्मानुष्ठान करनेवाला) धार्मिक पुरुष स्वर्गको प्राप्त होते हैं। पापियोंकी दुर्गति होती है और पशु-पक्षी आदि पुनः-पुनः जन्म-मरणरूपी संसारमें भ्रमण करते हैं। इस प्रकार सभी शास्त्रोंका सारोद्धार मैंने सोलह अध्यायोंमें कह दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो? ॥ ११५-११६॥
सूतजीने कहा-हे राजन्! गरुडजीने भगवान्के मुखसे ऐसा वचन सुनकर उन्हें बार-बार प्रणाम करके अंजलि बाँधकर इस प्रकार कहा-॥११७॥
गरुडजीने कहा-हे देवाधिदेव भगवन् ! हे नाथ! हे प्रभो! अपने अमृतमय वचनोंको सुनाकर आपने मुझे भवसागरसे तार दिया है। अब मेरा संदेह समाप्त हो गया और मैं कृतार्थ हो गया हूँ, इसमें संशय नहींऐसा कहकर गरुडजी मौन होकर भगवद्ध्यानपरायण हो गये॥ ११८-११९॥
स्मरण करनेसे जो दुर्गतिका हरण कर लेते हैं, पूजन और यज्ञके द्वारा जो सद्गति प्रदान करते हैं और अपनी परम भक्तिके द्वारा जो मुक्ति प्रदान करते हैं, वे हरि मेरी रक्षा करें॥ १२० ॥
॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें भगवान् विष्णु और गरुडके संवादमें ‘मोक्षधर्मनिरूपण’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६॥