सातवाँ अध्याय

पुत्रकी महिमा, दूसरेके द्वारा दिये गये पिण्डदानादिसे प्रेतत्वसे मुक्ति-इसके प्रतिपादनमें राजा बभ्रुवाहन तथा प्रेतकी कथा

सूतजीने कहा-ऐसा सुनकर पीपलके पत्तेकी भाँति काँपते हुए गरुडजीने प्राणियोंके उपकारके लिये पुनः भगवान् विष्णुसे पूछा- ॥१॥

गरुडजीने कहा-हे स्वामिन् ! किस उपायसे मनुष्य प्रमादवश अथवा जानकर पापकर्मोको करके भी यमकी यातनाको न प्राप्त हो, उसे कहिये॥२॥

संसाररूपी सागरमें डूबे हुए, दीन चित्तवाले, पापसे नष्ट बुद्धिवाले तथा विषयोंके कारण दूषित आत्मावाले मनुष्योंके उद्धारके लिये हे माधव! पुराणोंमें सुनिश्चित किये गये उपायको बताइये, जिससे मनुष्य सद्गति प्राप्त कर सकें ॥ ३-४॥

श्रीभगवान् बोले-हे तार्क्ष्य! मनुष्योंके हितकी कामनासे तुमने अच्छी बात पूछी है। सावधान होकर सुनो, मैं तुम्हें सब कुछ बताता हूँ॥५॥

हे खगेश्वर! मैंने इसके पहले पुत्ररहित और पापी मनुष्योंकी यातनाका वर्णन किया है। पुत्रवान् तथा धार्मिक मनुष्योंकी पूर्वोक्त दुर्गति कभी नहीं होती॥६॥

यदि अपने पूर्वार्जित कर्मोंके कारण पुत्रोत्पत्तिमें विघ्न हो तो किसी उपायसे पुत्रकी उत्पत्ति सम्पन्न करे। हरिवंशपुराणकी कथा सुनकर, विधानपूर्वक शतचण्डी यज्ञ करके तथा भक्तिपूर्वक शिवकी आराधना करके विद्वान्को पुत्र उत्पन्न करना चाहिये॥७-८॥

यतः पुत्र पितरोंकी पुम् नामक नरकसे रक्षा करता है, अतः स्वयं भगवान् ब्रह्माने ही उसे पुत्र नामसे कहा है॥९॥

एक धर्मात्मा पुत्र सम्पूर्ण कुलको तार देता है। पुत्रके द्वारा व्यक्ति लोकोंको जीत लेता है, ऐसी सनातनी श्रुति है॥१०॥

इस प्रकार वेदोंने भी पुत्रके उत्तम माहात्म्यको कहा है। इसलिये पुत्रका मुख देख करके मनुष्य पितृ-ऋणसे मुक्त हो जाता है॥ ११॥

पौत्रका स्पर्श करके मनुष्य तीनों (देव, ऋषि, पितृ) ऋणोंसे मुक्त हो जाता है, (इस प्रकार) पुत्र-पौत्र और प्रपौत्रसे यमलोकोंका अतिक्रमण करके स्वर्ग आदिको प्राप्त करता है॥ १२॥

ब्राह्मविवाह की विधिसे ब्याही गयी पत्नीसे उत्पन्न औरस पुत्र ऊर्ध्वगति प्राप्त कराता है और संगृहीत पुत्र अधोगतिकी ओर ले जाता है। हे खगश्रेष्ठ! ऐसा जान करके व्यक्ति हीनजातिकी स्त्रीसे उत्पन्न पुत्रोंको त्याग दे॥१३॥

  • ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच-ये आठ प्रकारके विवाह कहे गये हैं। (मनु० ३ । २१)

हे खग! सवर्ण पुरुषोंसे सवर्णा स्त्रियोंमें जो पुत्र उत्पन्न होते हैं, वे औरस पुत्र कहे जाते हैं और वे ही श्राद्ध प्रदान करके पितरोंको स्वर्ग प्राप्त करानेके कारण होते हैं ॥ १४ ॥

औरस पुत्रके द्वारा किये गये श्राद्धसे पिताको स्वर्ग प्राप्त होता है, इस विषयमें क्या कहना? दूसरेके द्वारा दिये गये श्राद्धसे भी प्रेत स्वर्गको चला जाता है, इस विषयमें सुनो॥ १५ ॥

यहाँ मैं एक प्राचीन इतिहास कहूँगा, जो और्ध्वदैहिक दानके श्रेष्ठ माहात्म्यको सूचित करता है॥१६॥

हे तार्क्ष्य! पूर्वकालमें त्रेतायुगमें महोदय नामके रमणीय नगरमें महाबलशाली और धर्मपरायण बभ्रुवाहन नामक एक राजा रहता था॥१७॥

वह यज्ञानुष्ठानपरायण, दानियोंमें श्रेष्ठ, लक्ष्मीसे सम्पन्न, ब्राह्मणभक्त तथा साधु पुरुषोंके प्रति अनुराग रखनेवाला, शील एवं आचार आदि गुणोंसे युक्त, स्वजनोंके प्रति अपनत्व और इतरजनोंके प्रति दयाके भावसे सम्पन्न था॥ १८॥

क्षात्रधर्मपरायण वह (राजा बभ्रुवाहन) औरस पुत्रकी भाँति धर्मपूर्वक अपनी प्रजाका पालन करता था और दण्ड देनेयोग्य अपराधियोंको दण्ड देता था॥१९॥

वह महाबाहु किसी समय सेनाके साथ मृगयाके लिये नाना वृक्षोंसे युक्त एक घनघोर वनमें प्रविष्ट हुआ॥ २०॥

वह वन नाना मृगगणों (पशुओं)-से व्याप्त और अनेक पक्षियोंसे निनादित था। उस समय राजाने वनके मध्यमें दूरसे एक मृगको देखा ॥ २१।।

राजाके द्वारा सुदृढ़ बाणसे विद्ध वह मृग बाणसहित जंगलमें अदृश्य हो गया॥ २२ ॥

रुधिरसे गीली हुई घासपर अंकित चिह्नसे राजाने उसका पीछा किया। तब मृगके प्रसंगसे वह राजा दूसरे वनमें जा पहुँचा ॥ २३ ॥

भूख-प्याससे सूखे हुए कण्ठवाला तथा परिश्रमके संतापसे पीडित उस राजाने एक जलाशयके समीप पहुँचकर घोड़ेके साथ उसमें स्नान किया॥ २४॥

तथा कमलकी गन्धादिसे सुगन्धित शीतल जलका पान किया। इसके बाद उस जलाशयसे बाहर निकलकर श्रमरहित राजा बभ्रुवाहनने वृक्षरूपी विशाल शाखाओंके कारण फैले हुए, मनोहर और शीतल छायावाले तथा पक्षिसमूहोंसे कूजित एक वटवृक्षको देखा ॥ २५-२६॥

वह वृक्ष सम्पूर्ण वनकी महती पताकाकी भाँति स्थित था। उसकी जड़के पास जाकर राजा बैठ गया॥ २७॥

उसके बाद राजाने भूख और प्याससे व्याकुल इन्द्रियोंवाले, ऊपरकी ओर उठे हुए बालोंवाले, अत्यन्त मलिन, कुबड़े और मांसरहित एक भयावह प्रेतको देखा ॥ २८॥

उस विकृत आकृतिवाले भयावह प्रेतको देखकर बभ्रुवाहन विस्मित हो गया। प्रेत भी घने जंगलमें आये हुए राजाको देखकर चकित हो गया और समुत्सुक मनवाला होकर वह प्रेतराज उसके पास आया। हे तार्क्ष्य ! तब उस प्रेतराजने राजासे कहा- ॥२९-३०॥

हे महाबाहो! आपके सम्बन्धसे मैंने प्रेतभावका त्याग कर दिया है अर्थात् मेरा प्रेतभाव छूट गया है और मैं परम शान्तिको प्राप्त हो गया हूँ तथा धन्यतर हो गया हूँ॥ ३१ ॥

राजाने कहा-हे कृष्णवर्णवाले तथा भयावह रूपवाले प्रेत! किस कर्मके प्रभावसे देखनेमें डरावने लगनेवाले और बहुत ही अमंगलकारी इस प्रेतत्व-स्वरूपको तुमने प्राप्त किया है। हे तात! अपने प्रेतत्वकी प्राप्तिका सारा कारण बतलाओ। तुम कौन हो और किस दानसे तुम्हारा प्रेतत्व नष्ट होगा? ॥ ३२-३३ ॥

प्रेतने कहा-हे श्रेष्ठ राजन् ! मैं आरम्भसे आपको सब कुछ बताता हूँ। प्रेतत्वका कारण सुनकर आप कृपया उसे दूर करनेकी दया कीजिये॥ ३४॥

वैदिश नामका एक नगर था, जो सभी प्रकारकी सम्पत्तियोंसे समृद्ध, नाना जनपदोंसे व्याप्त, अनेक प्रकारके रत्नोंसे परिपूर्ण, धनिकोंके भवनों तथा देव एवं राजप्रासादोंसे सुशोभित और अनेक प्रकारके धर्मानुष्ठानोंसे युक्त था। हे तात! मैं वहाँ रहता हुआ निरन्तर देवपूजा किया करता था॥ ३५-३६ ॥

आपको विदित होना चाहिये कि मैं वैश्यजातिमें उत्पन्न हुआ और मेरा नाम सुदेव था। मैंने हव्य प्रदान करके देवताओंका तथा कव्य प्रदान करके पितरोंका तर्पण किया* ॥ ३७॥

अनेक प्रकारके दानोंसे मैंने ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट किया था और अनेक बार दीन, अंधे एवं कृपण (जरूरतमन्द) मनुष्योंको अन्न दिया था॥ ३८ ॥

(किंतु) हे राजन् ! मेरा यह सारा सत्कर्म मेरे दुर्दैवसे निष्फल हो गया। जिस कारण मेरा सुकृत निष्फल हुआ वह मैं आपको बताता हूँ॥ ३९॥

मुझे कोई सन्तान नहीं है, मेरा कोई सुहृद् नहीं है, कोई बान्धव नहीं है और न ऐसा कोई मित्र ही है जो मेरी और्ध्वदैहिक क्रिया करता॥ ४० ॥

हे महाराज! (मृत्युके अनन्तर) जिस व्यक्तिके उद्देश्यसे षोडश मासिक श्राद्ध नहीं दिये जाते, सैकड़ों श्राद्ध करनेपर भी उसका प्रेतत्व सुस्थिर ही रहता है अर्थात् दूर नहीं होता॥४१॥

हे महाराज! आप मेरा और्ध्वदैहिक कृत्य करके मेरा उद्धार कीजिये। (क्योंकि) इस लोकमें राजा सभी वर्णोका बन्धु कहा जाता है॥ ४२ ॥

इसलिये हे राजेन्द्र! आप मेरा उद्धार कीजिये, मैं आपको मणिरत्न देता हूँ। हे वीर! यदि आप मेरा हित चाहते हैं तो जैसे मेरी सद्गति हो सके और मेरी प्रेतयोनिसे जैसे मुक्ति हो सके, वैसा आप करें। भूख-प्यास आदि दुःखोंके कारण यह प्रेतयोनि मेरे लिये दुःसह हो गयी है॥ ४३-४४॥

इस वनमें सुन्दर स्वादवाले शीतल जल और फल विद्यमान हैं, फिर भी मैं भूख और प्याससे पीड़ित हूँ। मुझे जल और फलकी प्राप्ति नहीं हो पाती॥ ४५ ॥

हे राजन्! यदि मेरे उद्देश्यसे यथाविधि नारायणबलि की जाय, उसके बाद वेदमन्त्रोंके द्वारा मेरी सभी और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न की जाय तो निश्चित ही मेरा प्रेतत्व नष्ट हो जायगा, इसमें संशय नहीं है। मैंने सुन रखा है कि वेदके मन्त्र, तप, दान और सभी प्राणियोंमें दया, सत्-शास्त्रोंका श्रवण, भगवान् विष्णुकी पूजा और सज्जनोंकी संगति-ये सब प्रेतयोनिके विनाशके लिये होते हैं ॥ ४६-४८॥

इसलिये मैं आपसे प्रेतत्वको नष्ट करनेवाली विष्णुपूजाको कहूँगा। हे राजन् ! न्यायोपार्जित दो सुवर्ण (३२ माशा) भारका सोना लेकर उससे नारायणकी एक प्रतिमा बनवाये, जिसे विविध पवित्र जलोंसे स्नान कराकर दो पीले वस्त्रोंसे वेष्टित करके सभी अलंकारोंसे विभूषितकर अधिवासित करे, तदनन्तर उसका पूजन करे ॥ ४९-५० ॥

उस प्रतिमाके पूर्वभागमें श्रीधर, दक्षिणमें मधुसूदन, पश्चिममें वामन और उत्तरमें गदाधर, मध्यमें पितामह ब्रह्मा तथा महादेव शिवकी स्थापना करके गन्ध-पुष्पादि द्रव्योंके द्वारा विधि-विधानसे पृथक्-पृथक् पूजन करे॥५१-५२॥

उसके बाद प्रदक्षिणा करके अग्निमें (हवन करके) देवताओंको तृप्त करके घृत, दधि तथा दूधसे विश्वेदेवोंको तृप्त करे॥५३॥

तदनन्तर समाहित चित्तवाला यजमान स्नान करके नारायणके आगे विनीतात्मा होकर विधिपूर्वक मनमें संकल्पित और्ध्वदैहिक क्रियाका आरम्भ करे॥५४॥

इसके बाद क्रोध और लोभसे रहित होकर शास्त्रविधिसे सभी श्राद्धोंको करे तथा वृषोत्सर्ग करे॥५५॥

तदनन्तर ब्राह्मणोंको तेरह पददान* करे, फिर शय्यादान देकर प्रेतके लिये घटका दान करे॥५६॥

राजाने कहा-(हे प्रेत!) किस विधानसे प्रेतघटका निर्माण करना चाहिये और किस विधानसे उसका दान करना चाहिये। सभी प्राणियोंके ऊपर अनुकम्पा करनेके हेतुसे प्रेतोंको मुक्ति दिलानेवाले प्रेतघट-दानके विषयमें बताइये ॥५७॥

प्रेतने कहा-हे महाराज! आपने ठीक पूछा है, जिस सुदृढ दानसे प्रेतत्व नहीं होता है, उसे मैं कहता हूँ, आप ध्यानसे सुनें ॥ ५८॥

प्रेतघटका दान, सभी प्रकारके अमंगलोंका विनाश करनेवाला, सभी लोकोंमें दुर्लभ और दुर्गतिको नष्ट करनेवाला है॥ ५९॥

ब्रह्मा, शिव तथा विष्णुसहित लोकपालोंसे युक्त तपाये हुए सोनेका एक घट बनाकर उसे दूध, घी आदिसे पूरा भरकर, भक्तिपूर्वक प्रणाम करके ब्राह्मणको दान करे। (इसके अतिरिक्त) तुम्हें अन्य सैकड़ों दानोंको देनेकी क्या आवश्यकता? ॥६० ॥

हे राजन् ! उस घटके मध्यमें ब्रह्मा, विष्णु तथा कल्याण करनेवाले अविनाशी शंकरकी स्थापना करे एवं घटके कण्ठमें पूर्व आदि दिशाओंमें क्रमशः लोकपालोंका आवाहन करके उनकी धूप, पुष्प, चन्दन आदिसे विधिवत् पूजा करके दूध और घीके साथ उस हिरण्यमय घटका (ब्राह्मणको) दान करना चाहिये॥६१-६२ ॥

हे राजन् ! प्रेतत्वकी निवृत्तिके लिये सभी दानोंमें श्रेष्ठ और महापातकोंका नाश करनेवाले इस दानको श्रद्धापूर्वक करना चाहिये॥६३॥

श्रीभगवान्ने कहा-हे कश्यपपुत्र गरुड! प्रेतके साथ इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि उसी समय हाथी, घोड़े आदिसे व्याप्त राजाकी सेना पीछेसे वहाँ आ गयी॥६४॥

सेनाके आनेके बाद राजाको महामणि देकर उन्हें प्रणाम करके पुनः (अपने उद्धारके लिये और्ध्वदैहिक क्रिया करनेकी) प्रार्थना करके वह प्रेत अदृश्य हो गया॥६५॥

हे पक्षिन् ! (तदनन्तर) उस वनसे निकलकर राजा भी अपने नगरको चला गया और अपने नगरमें पहुंचकर प्रेतके द्वारा बताये हुए वचनोंके अनुसार उसने विधि-विधानसे और्ध्वदैहिक क्रियाका अनुष्ठान किया। उसके पुण्यप्रदानसे मुक्त होकर प्रेत स्वर्गको चला गया॥६६-६७ ॥

जब दूसरेके द्वारा दिये हुए श्राद्धसे प्रेतकी सद्गति हो गयी तो फिर पुत्रके द्वारा प्रदत्त श्राद्धसे पिताकी सद्गति हो जाय, इसमें क्या आश्चर्य ॥ ६८॥

इस पुण्यप्रद इतिहासको जो सुनता है और जो सुनाता है, वे दोनों पापाचारोंसे युक्त होनेपर भी प्रेतत्वको प्राप्त नहीं होते॥६९ ॥

॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ‘बभ्रुवाहनप्रेतसंस्कार’ नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७॥

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