नवाँ अध्याय

मरणासन्न व्यक्तिके निमित्त किये जानेवाले कृत्य

गरुडजी बोले-हे प्रभो! आपने आतुरकालिक दानके संदर्भमें भलीभाँति कहा। अब म्रियमाण (मरणासन्न) व्यक्तिके लिये जो कुछ करना चाहिये, उसे बताइये ॥१॥

श्रीभगवान्ने कहा-हे तार्क्ष्य ! जिस विधानसे मनुष्य मरनेपर सद्गति प्राप्त करते हैं, शरीर-त्याग करनेकी उस विधिको मैं कहता हूँ, सुनो ॥२॥

कर्मके सम्बन्धसे जब प्राणी अपना शरीर छोड़ने लगता है तो उस समय तुलसीके समीप गोबरसे एक मण्डलकी रचना करनी चाहिये ॥३॥

वहाँ (उस मण्डलके ऊपर) तिल बिखेरकर कुशोंको बिछाये, तदनन्तर उनके ऊपर श्वेत वस्त्रके आसनपर शालग्राम-शिलाको स्थापित करे॥४॥

जहाँ पाप, दोष और भयको हरण करनेवाली शालग्राम-शिला विद्यमान है, उसके संनिधानमें मरनेसे प्राणीकी मुक्ति सुनिश्चित है॥५॥

जहाँ जगत्के तापका हरण करनेवाली तुलसीवृक्षकी छाया है, वहाँ मरनेसे सदैव मुक्ति ही होती है, जो मुक्ति दानादि कर्मोंसे दुर्लभ है॥६॥

जिसके घरमें तुलसीवृक्षके लिये स्थान बना हुआ है, वह घर तीर्थस्वरूप ही है, वहाँ यमके दूत प्रवेश नहीं करते ॥७॥

तुलसीकी मंजरीसे युक्त होकर जो प्राणी अपने प्राणोंका परित्याग करता है, वह सैकड़ों पापोंसे युक्त हो तो भी यमराज उसे देख नहीं सकते ॥ ८॥

तुलसीके दलको मुखमें रखकर तिल और कुशके आसनपर मरनेवाला व्यक्ति पुत्रहीन हो तो भी नि:संदेह विष्णुपुरको जाता है॥९॥

तीनों प्रकार (काले, सफेद और भूरे)-के तिल, कुश और तुलसी-ये सब म्रियमाण प्राणीको दुर्गतिसे बचा लेते हैं ॥ १०॥

यतः मेरे पसीनेसे तिल पैदा हुए हैं, अतः वे पवित्र हैं। असुर, दानव और दैत्य तिलको देखकर भाग जाते हैं ॥ ११॥

हे तार्क्ष्य! मेरे रोमसे पैदा हुए दर्भ (कुश) मेरी विभूति हैं। इसलिये उनके स्पर्शसे ही मनुष्यको स्वर्गकी प्राप्ति होती है॥ १२ ॥

कुशके मूलमें ब्रह्मा, कुशके मध्यमें जनार्दन और कुशके अग्रभागमें शंकर-इस प्रकार तीनों देवता कुशमें स्थित रहते हैं ॥ १३॥

इसलिये कुश, अग्नि, मन्त्र, तुलसी, ब्राह्मण और गौ-ये बार-बार उपयोग किये जानेपर भी निर्माल्य नहीं होते॥ १४॥

पिण्डदानमें उपयोग किये गये दर्भ (कुश), प्रेतके निमित्त भोजन करनेवाले ब्राह्मण, नीचके मुखसे उच्चरित मन्त्र, नीचसम्बन्धी गौ और तुलसी तथा चिताकी आग-ये सब निर्माल्य अर्थात् अपवित्र (अतएव अग्राह्य) होते हैं ॥ १५ ॥

गोबरसे लीपी हुई और कुश बिछाकर संस्कार की हुई पृथ्वीपर आतुर (मरणासन्न व्यक्ति)-को स्थापित करना चाहिये। अन्तरिक्षका परिहार करना चाहिये अर्थात् चौकी आदिपर नहीं रखना चाहिये॥ १६॥

ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा अन्य सभी देवता और हुताशन (अग्नि)-ये सभी मण्डलपर विराजमान रहते हैं, इसलिये मण्डलकी रचना करनी चाहिये॥१७॥

भूमि लेपरहित होती है अर्थात् मल-मूत्र आदिसे रहित होती है, वह सर्वत्र पवित्र होती है, किंतु जो भूमिभाग कभी लीपा जा चुका है (या मल-मूत्र आदिसे दूषित है) वहाँ पुन: लीपनेपर उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ १८॥

बिना लीपी हुई भूमिपर और चारपाई आदिपर या आकाशमें (भूमिकी सतहसे ऊपर) राक्षस, पिशाच, भूत, प्रेत और यमदूत प्रविष्ट हो जाते हैं ॥ १९॥

इसलिये भूमिपर मण्डल बनाये बिना अग्निहोत्र, श्राद्ध, ब्राह्मण-भोजन, देवपूजन और आतुर व्यक्तिका स्थापन नहीं करना चाहिये ॥ २०॥

इसलिये लीपी हुई भूमिपर आतुर व्यक्तिको लिटाकर उसके मुखमें स्वर्ण और रत्नका प्रक्षेप करके शालग्रामस्वरूपी भगवान् विष्णुका पादोदक देना चाहिये॥ २१ ॥ शालग्रामशिलातोयं यः पिबेद् बिन्दुमात्रकम् । स सर्वपापनिर्मुक्तो वैकुण्ठभुवनं व्रजेत्॥२२॥

जो शालग्राम-शिलाके जलको बिन्दुमात्र भी पीता है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो वैकुण्ठलोकमें जाता है ॥ २२ ॥

इसलिये (आतुर व्यक्तिको) महापातकको नष्ट करनेवाले गंगाजलको देना चाहिये। गंगाजलका पान सभी तीर्थों में किये जानेवाले स्नान-दानादिके पुण्यरूपी फलको प्रदान करनेवाला है ॥ २३ ॥

जो शरीरको शुद्ध करनेवाले चान्द्रायणव्रतको एक हजार बार करता है और जो (एक बार) गंगाजलका पान करता है, वे दोनों समान (फलवाले) हैं ॥ २४ ॥

हे तार्क्ष्य! अग्निके सम्बन्धसे जैसे रूईकी राशि नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार गंगाजलसे पातक भस्मसात् हो जाते हैं ॥ २५ ॥

जो सूर्यकी किरणोंसे संतप्त गंगाके जलका पान करता है, वह सभी योनियोंसे छूटकर हरिके धामको प्राप्त होता है ॥ २६ ॥

अन्य नदियाँ मनुष्योंको जलावगाहन (स्नान) करनेपर पवित्र करती हैं, किंतु गंगाजी तो दर्शन, स्पर्श, पान अथवा ‘गंगा’ इस नामका कीर्तन करनेमात्रसे सैकड़ों, हजारों पुण्यरहित पुरुषोंको भी पवित्र कर देती हैं। इसलिये संसारसे पार लगा देनेवाले गंगाजलको पीना चाहिये॥२७-२८॥

जो व्यक्ति प्राणोंके कण्ठगत होनेपर ‘गंगा-गंगा’ ऐसा कहता है, वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है और पुनः भूलोकमें जन्म नहीं लेता॥ २९॥

प्राणोत्क्रमण (प्राणोंके निकलने)-के समय जो पुरुष श्रद्धायुक्त होकर मनसे गंगाका चिन्तन करता है, वह भी परम गतिको प्राप्त होता है॥३०॥

अतः गंगाका ध्यान, गंगाको नमन, गंगाका संस्मरण करना चाहिये और गंगाजलका पान करना चाहिये। इसके बाद मोक्ष प्रदान करनेवाली श्रीमद्भागवतकी कथाको (जितना सम्भव हो उतना) श्रवण करना चाहिये ॥३१॥

जो व्यक्ति अन्त समयमें श्रीमद्भागवतके एक श्लोक, आधे श्लोक अथवा एक पादका भी पाठ करता है, वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पुनः संसारमें कभी नहीं आता ॥ ३२ ॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको मरणकालमें वेद और उपनिषदोंका पाठ तथा शिव और विष्णुकी स्तुतिसे मुक्ति प्राप्त होती है॥ ३३ ॥

हे खग! प्राणत्यागके समय मनुष्यको अनशनव्रत (जल और अन्नका त्याग) करना चाहिये और यदि वह विरक्त द्विजन्मा हो तो उसे आतुरसंन्यास लेना चाहिये॥ ३४॥

प्राणोंके कण्ठमें आनेपर जो प्राणी ‘मैंने संन्यास ले लिया है’-ऐसा कहता है, वह मरनेपर विष्णुलोकको प्राप्त होता है। पुनः पृथ्वीपर उसका जन्म नहीं होता॥ ३५ ॥

इस प्रकार हे खग! जिस धार्मिक पुरुषके आतुरकालिक पूर्वोक्त कार्य सम्पादित किये जाते हैं, उसके प्राण ऊपरके छिद्रोंसे सुखपूर्वक निकलते हैं ॥ ३६॥

मुख, दोनों नेत्र, दोनों नासिकारन्ध्र तथा दोनों कान-ये सात (ऊपरके) द्वार (छिद्र) हैं, इनमेंसे किसी द्वारसे सुकृती (पुण्यात्मा)-के प्राण निकलते हैं और योगियोंके प्राण तालुरन्ध्रसे निकलते हैं ॥ ३७॥

अपानसे मिले हुए प्राण जब पृथक् हो जाते हैं, तब प्राणवायु सूक्ष्म होकर शरीरसे निकलता है॥३८॥

प्राणवायुरूपी ईश्वरके निकल जानेपर कालसे आहत शरीर निराधार वृक्षकी भाँति गिर पड़ता है॥ ३९ ॥

प्राणसे मुक्त होनेके बाद शरीर तुरंत चेष्टाशून्य, घृणित, दुर्गन्धयुक्त, अस्पृश्य और सभीके लिये निन्दित हो जाता है॥४०॥

इस शरीरकी कीड़ा, विष्ठा तथा भस्मरूप-ये तीन अवस्थाएँ होती हैं, इसमें कीड़े पड़ते हैं, यह विष्ठाके समान दुर्गन्धयुक्त हो जाता है अथवा अन्ततः चितामें भस्म हो जाता है। इसलिये क्षणमात्रमें नष्ट हो जानेवाले इस देहके लिये मनुष्यों के द्वारा गर्व क्यों किया जाय ॥४१॥

(पंचभूतोंसे निर्मित इस शरीरका) पृथ्वीतत्त्व पृथ्वीमें लीन हो जाता है, जलतत्त्व जलमें, तेजस्तत्त्व तेजमें और वायुतत्त्व वायुमें लीन हो जाता है, इसी प्रकार आकाशतत्त्व भी आकाशमें लीन हो जाता है। सभी प्राणियोंके देहमें स्थित रहनेवाला, सर्वव्यापी, शिवस्वरूप, नित्य मुक्त और जगत्साक्षी आत्मा अजर-अमर है॥ ४२-४३॥

सभी इन्द्रियोंसे युक्त और शब्द आदि विषयोंसे युक्त (मृत व्यक्तिके देहसे निकला) जीव कर्म-कोशसे समन्वित तथा काम और रागादिके सहित-पुण्यकी वासनासे युक्त होकर अपने कर्मोंके द्वारा निर्मित नवीन शरीरमें उसी प्रकार प्रवेश करता है, जैसे घरके जल जानेपर गृहस्थ दूसरे नवीन घरमें प्रवेश करता है ॥ ४४-४५ ॥

तब किंकिणीजालकी मालाओंसे युक्त विमान लेकर सुन्दर चामरोंसे सुशोभित देवदूत आते हैं। धर्मके तत्त्वको जाननेवाले, बुद्धिमान् , धार्मिक जनोंके प्रिय वे देवदूत कृतकृत्य इस जीवको विमानसे स्वर्ग ले जाते हैं ॥ ४६-४७ ॥

सुन्दर, दिव्य देह धारण करके निर्मल वस्त्र और माल्य धारण करके, सुवर्ण और रत्नादिके आभरणोंसे युक्त होकर वह महानुभाव जीव दानके प्रभावसे देवताओंसे पूजित होकर स्वर्गको प्राप्त करता है ॥ ४८ ॥

॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ‘म्रियमाणकृत्यनिरूपण’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९॥

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