पहला अध्याय

भगवान् विष्णु तथा गरुडके संवादमें गरुडपुराण-सारोद्धारका उपक्रम, पापी मनुष्योंकी इस लोक तथा परलोकमें होनेवाली दुर्गतिका वर्णन, दशगात्रके पिण्डदानसे यातनादेहका निर्माण धर्म ही जिसका सुदृढ़ मूल है, वेद जिसका स्कन्ध (तना) है, पुराणरूपी शाखाओंसे जो समृद्ध है, यज्ञ जिसका पुष्प है और मोक्ष जिसका फल है, ऐसे भगवान् मधुसूदनरूपी पादप-कल्पवृक्षकी जय हो॥१॥

देव-क्षेत्र नैमिषारण्यमें स्वर्गलोककी प्राप्तिकी कामनासे शौनकादि ऋषियोंने (एक बार) सहस्रवर्षमें पूर्ण होनेवाला यज्ञ प्रारम्भ किया॥२॥

एक समय प्रातःकालके हवनादि कृत्योंका सम्पादन करके उन सभी मुनियोंने सत्कार किये गये आसनासीन सूतजी महाराजसे आदरपूर्वक यह पूछा- ॥३॥

ऋषियोंने कहा-(हे सूतजी महाराज!) आपने सुख देनेवाले देवमार्गका सम्यक् निरूपण किया है। इस समय हमलोग भयावह यममार्गके विषयमें सुनना चाहते हैं। आप सांसारिक दुःखोंको और उस क्लेशके विनाशक साधनको तथा इस लोक और परलोकके क्लेशोंको यथावत् वर्णन करनेमें समर्थ हैं। अतः उसका वर्णन कीजिये] ॥४-५॥

सूतजी बोले-हे मुनियो! आपलोग सुनें। मैं अत्यन्त दुर्गम यममार्गके विषयमें कहता हूँ, जो पुण्यात्माजनोंके लिये सुखद और पापियोंके लिये दु:खद है। गरुडजीके पूछनेपर भगवान् विष्णुने (उनसे) जैसा कुछ कहा था, मैं उसी प्रकार आपलोगोंके संदेहकी निवृत्तिके लिये कहूँगा॥६-७॥

किसी समय वैकुण्ठमें सुखपूर्वक विराजमान परम गुरु श्रीहरिसे विनतापुत्र गरुडजीने विनयसे झुककर पूछा- ॥ ८॥

गरुडजीने कहा-हे देव! आपने भक्तिमार्गका अनेक प्रकारसे मेरे समक्ष वर्णन किया है और भक्तोंको प्राप्त होनेवाली उत्तम गतिके विषयमें भी कहा है। अब हम भयंकर यममार्गके विषयमें सुनना चाहते हैं। हमने सुना है कि आपकी भक्तिसे विमुख प्राणी वहीं (नरकमें) जाते हैं ॥९-१०॥

भगवानका नाम सुगमतापूर्वक लिया जा सकता है, जिह्वा प्राणीके अपने वशमें है तो भी लोग नरकको जाते हैं, ऐसे अधम मनुष्योंको बार-बार धिक्कार है। इसलिये हे भगवन्! पापियोंको जो गति प्राप्त होती है तथा यममार्गमें जैसे वे अनेक प्रकारके दुःख प्राप्त करते हैं, उसे आप मुझसे कहें ॥११-१२॥

श्रीभगवान् बोले-हे पक्षीन्द्र ! सुनो, मैं उस यममार्गके विषयमें कहता हूँ , जिस मार्गसे पापीजन नरककी यात्रा करते हैं और जो सुननेवालोंके लिये भी भयावह है॥ १३ ॥

हे तार्क्ष्य! जो प्राणी सदा पापपरायण हैं, दया और धर्मसे रहित हैं, जो दुष्ट लोगोंकी संगतिमें रहते हैं, सत्-शास्त्र और सत्संगतिसे विमुख हैं; जो अपनेको स्वयंप्रतिष्ठित मानते हैं, अहंकारी हैं तथा धन और मानके मदसे चूर हैं, आसुरी शक्तिको प्राप्त हैं तथा दैवी सम्पत्तिसे रहित हैं; जिनका चित्त अनेक विषयोंमें आसक्त होनेसे भ्रान्त है, जो मोहके जालमें फँसे हैं और कामनाओंके भोगमें ही लगे हैं, ऐसे व्यक्ति अपवित्र नरकमें गिरते हैं। जो लोग ज्ञानशील हैं, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं। पापी मनुष्य दुःखपूर्वक यम-यातना प्राप्त करते हैं ॥१४–१७॥

पापियोंको इस लोकमें जैसे दुःखकी प्राप्ति होती है और मृत्युके पश्चात् वे जैसी यमयातनाको प्राप्त होते हैं, उसे सुनो॥ १८॥

यथोपार्जित पुण्य और पापके फलोंको पूर्वमें भोगकर कर्मके सम्बन्धसे उसे कोई शारीरिक रोग हो जाता है॥ १९॥

आधि (मानसिक रोग) और व्याधि (शारीरिक रोग)-से युक्त तथा जीवनधारण करनेकी आशासे उत्कण्ठित उस व्यक्तिकी जानकारीके बिना ही सर्पकी भाँति बलवान् काल उसके समीप आ पहुँचता है॥ २० ॥

उस मृत्युकी सम्प्राप्तिकी स्थितिमें भी उसे वैराग्य नहीं होता। उसने जिनका भरण-पोषण किया था, उन्हींके द्वारा उसका भरण-पोषण होता है, वृद्धावस्थाके कारण विकृतरूपवाला और मरणाभिमुख वह व्यक्ति घरमें अवमाननापूर्वक दी हुई वस्तुको कुत्तेकी भाँति खाता हुआ जीवन व्यतीत करता है। वह रोगी हो जाता है, उसे मन्दाग्नि हो जाती है और उसका आहार तथा उसकी सभी चेष्टाएँ कम हो जाती हैं ॥ २१-२२॥

प्राणवायुके बाहर निकलते समय आँखें उलट जाती हैं, नाडियाँ कफसे रुक जाती हैं, उसे खाँसी और श्वास लेनेमें प्रयत्न करना पड़ता है तथा कण्ठसे घुर्-घुर्-से शब्द निकलने लगते हैं ॥ २३ ॥

चिन्तामग्न स्वजनोंसे घिरा हुआ तथा सोया हुआ वह (व्यक्ति) कालपाशके वशीभूत होनेके कारण बुलानेपर भी नहीं बोलता ॥ २४॥

इस प्रकार कुटुम्बके भरण-पोषणमें ही निरन्तर लगा रहनेवाला, अजितेन्द्रिय व्यक्ति (अन्तमें) रोते-बिलखते बन्धु-बान्धवोंके बीच उत्कट वेदनासे संज्ञाशून्य होकर मर जाता है ॥ २५ ॥

हे गरुड! उस अन्तिम क्षणमें प्राणीको व्यापक (दिव्य) दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिससे वह लोक-परलोकको एकत्र देखने लगता है। अतः चकित होकर वह कुछ भी कहना नहीं चाहता ॥ २६॥

यमदूतोंके समीप आनेपर सभी इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं, चेतना जडीभूत हो जाती है और प्राण चलायमान हो जाते हैं ॥ २७ ॥

आतुरकालमें प्राणवायुके अपने स्थानसे चल देनेपर एक क्षण भी एक कल्पके समान प्रतीत होता है और सौ बिच्छुओंके डंक मारनेसे जैसी पीडा होती है, वैसी पीडाका उस समय (उसे) अनुभव होने लगता है ॥ २८॥

वह मरणासन्न व्यक्ति फेन उगलने लगता है और उसका मुख लारसे भर जाता है। पापीजनोंके प्राणवायु अधोद्वार (गुदामार्ग)-से निकलते हैं ॥ २९ ॥

उस समय दोनों हाथोंमें पाश और दण्ड धारण किये, नग्न, दाँतोंको कटकटाते हुए क्रोधपूर्ण नेत्रवाले यमके दो भयंकर दूत समीपमें आते हैं ॥ ३० ॥

उनके केश ऊपरकी ओर उठे होते हैं, वे कौएके समान काले होते हैं और टेढ़े मुखवाले होते हैं तथा उनके नख आयुधकी भाँति होते हैं। उन्हें देखकर भयभीत हृदयवाला वह मरणासन्न प्राणी मलमूत्रका विसर्जन करने लगता है ॥ ३१ ॥

अपने पांचभौतिक शरीरसे हाय-हाय करते हुए निकलता हुआ तथा यमदूतोंके द्वारा पकड़ा हुआ वह अंगुष्ठमात्र प्रमाणका पुरुष अपने घरको देखता हुआ यमदूतोंके द्वारा यातनादेहसे ढक करके गले में बलपूर्वक पाशोंसे बाँधकर सुदूर यममार्गपर यातनाके लिये उसी प्रकार ले जाया जाता है, जिस प्रकार राजपुरुष दण्डनीय अपराधीको ले जाते हैं ॥ ३२-३३॥

इस प्रकार ले जाये जाते हुए उस जीवको यमके दूत तर्जना करके डराते हैं और नरकोंके तीव्र भयका पुनः-पुनः वर्णन करते हैं (सुनाते हैं)- ॥ ३४॥

[यमदूत कहते हैं-] रे दुष्ट! शीघ्र चल, तुम यमलोक जाओगे। आज तुम्हें हम सब कुम्भीपाक आदि नरकोंमें शीघ्र ही ले जायँगे ॥ ३५ ॥

इस प्रकार यमदूतोंकी वाणी तथा बन्धु-बान्धवोंका रुदन सुनता हुआ वह जीव जोरसे हाहाकार करके विलाप करता है और यमदूतोंके द्वारा प्रताड़ित किया जाता है ॥ ३६॥

यमदूतोंकी तर्जनाओंसे उसका हृदय विदीर्ण हो जाता है, वह काँपने लगता है, रास्तेमें उसे कुत्ते काटते हैं और अपने पापोंका स्मरण करता हुआ वह पीड़ित जीव (यममार्गमें) चलता है॥ ३७॥

भूख और प्याससे पीड़ित होकर सूर्य, दावाग्नि एवं वायु (-के झोंकों)-से संतप्त होते हुए और यमदूतोंके द्वारा पीठपर कोड़ेसे पीटे जाते हुए उस जीवको तपी हुई बालुकासे पूर्ण तथा विश्रामरहित और जलरहित मार्गपर असमर्थ होते हुए भी बड़ी कठिनाईसे चलना पड़ता है ॥ ३८॥

थककर जगह-जगह गिरता और मूर्छित होता हुआ वह पुनः उठकर पापीजनोंकी भाँति अन्धकारपूर्ण यमलोकमें ले जाया जाता है॥ ३९॥

दो अथवा तीन मुहूर्तमें वह मनुष्य वहाँ पहुँचाया जाता है और यमदूत उसे घोर नरकयातनाओंको दिखाते हैं ॥४०॥

मुहूर्तमात्रमें यमको और नारकीय यातनाओंके भयको देखकर वह व्यक्ति यमकी आज्ञासे आकाशमार्गसे यमदूतोंके साथ पुन: इस लोक (मनुष्यलोक)-में चला आता है॥४१॥

मनुष्यलोकमें आकर अनादि वासनासे बद्ध वह जीव देहमें प्रविष्ट होनेकी इच्छा रखता है, किंतु यमदूतोंद्वारा पकड़कर पाशमें बाँध दिये जानेसे भूख और प्याससे अत्यन्त पीड़ित होकर रोता है॥४२॥

हे तार्क्ष्य ! वह पातकी प्राणी पुत्रोंसे दिये हुए पिण्ड तथा आतुरकालमें दिये हुए दानको प्राप्त करता है तो भी उस नास्तिकको तृप्ति नहीं होती॥ ४३ ॥

पुत्रादिके द्वारा पापियोंके उद्देश्यसे किये गये श्राद्ध, दान तथा जलांजलि उनके पास ठहरती नहीं। अतः पिण्डदानका भोग करनेपर भी वे क्षुधासे व्याकुल होकर (यममार्गमें) जाते हैं ॥ ४४॥

जिनका पिण्डदान नहीं होता, वे प्रेतरूपमें होकर कल्पपर्यन्त निर्जन वनमें बहुत दुःखी होकर भ्रमण करते रहते हैं ॥ ४५ ॥

सैकड़ों करोड़ कल्प बीत जानेपर भी बिना भोग किये कर्मफलका नाश नहीं होता और जबतक वह पापी जीव यातनाओंका भोग नहीं कर लेता, तबतक उसे मनुष्य-शरीर भी प्राप्त नहीं होता ॥ ४६॥

हे पक्षी! इसलिये पुत्रको चाहिये कि वह दस दिनोंतक प्रतिदिन पिण्डदान करे। हे पक्षिश्रेष्ठ! वे पिण्ड प्रतिदिन चार भागोंमें विभक्त होते हैं। उनमें दो भाग तो प्रेतके देहके पंचभूतोंकी पुष्टिके लिये होते हैं, तीसरा भाग यमदूतोंको प्राप्त होता है और चौथे भागसे उस जीवको आहार प्राप्त होता है॥ ४७-४८॥

नौ रात-दिनोंमें पिण्डको प्राप्त करके प्रेतका शरीर बन जाता है और दसवें दिन उसमें बलकी प्राप्ति होती है॥४९॥

हे खग! मृत व्यक्तिके देहके जल जानेपर पिण्डके द्वारा पुनः एक हाथ लम्बा शरीर प्राप्त होता है, जिसके द्वारा वह प्राणी (यमलोकके) रास्तेमें शुभ और अशुभ कर्मोंके फलको भोगता है॥५०॥

पहले दिन जो पिण्ड दिया जाता है, उससे उसका सिर बनता है, दूसरे दिनके पिण्डसे ग्रीवा (गरदन) और स्कन्ध (कंधे) तथा तीसरे पिण्डसे हृदय बनता है॥५१॥

चौथे पिण्डसे पृष्ठभाग (पीठ), पाँचवेंसे नाभि, छठे तथा सातवें पिण्डसे क्रमश: कटि (कमर) और गुह्यांग उत्पन्न होते हैं ॥५२॥

आठवें पिण्डसे ऊरु (जाँघे) और नौवें पिण्डसे जानु (घुटने) तथा पैर बनते हैं। इस प्रकार नौ पिण्डोंसे देहको प्राप्त करके दसवें पिण्डसे उसकी क्षुधा और तृषा (भूख-प्यास)–ये दोनों जाग्रत् होती हैं ॥ ५३॥

इस पिण्डज शरीरको प्राप्त करके भूख और प्याससे पीड़ित जीव ग्यारहवें तथा बारहवें-दो दिन भोजन करता है॥५४॥

तेरहवें दिन यमदूतोंके द्वारा बन्दरकी तरह बँधा हुआ वह प्राणी अकेला उस यममार्गमें जाता है॥ ५५॥

हे खग! (मार्गमें मिलनेवाली) वैतरणीको छोड़कर यमलोकके मार्गकी दूरीका प्रमाण छियासी हजार योजन है॥५६॥

वह प्रेत प्रतिदिन रात-दिनमें दो सौ सैंतालीस योजन चलता है॥ ५७॥

मार्गमें आये हुए इन सोलह पुरों (नगरों)-को पार करके पातकी व्यक्ति धर्मराजके भवनमें जाता है। (१) सौम्यपुर, (२) सौरिपुर, (३) नगेन्द्रभवन, (४) गन्धर्वपुर, (५) शैलागम, (६) क्रौंचपुर, (७) क्रूरपुर, (८) विचित्रभवन, (९) बह्वापदपुर, (१०) दुःखदपुर, (११) नानाक्रन्दपुर, (१२) सुतप्तभवन, (१३) रौद्रपुर, (१४) पयोवर्षणपुर, (१५) शीताढ्यपुर तथा (१६) बहुभीतिपुरको पार करके इनके आगे यमपुरीमें धर्मराजका भवन स्थित है॥ ५८-५९ ॥

यमराजके दूतोंके पाशोंसे बँधा हुआ पापी जीव रास्तेभर हाहाकार करता-रोता हुआ अपने घरको छोड़ करके यमपुरीको जाता है॥६०॥

॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ‘पापियोंके इस लोक तथा परलोकके दुःखका निरूपण’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥

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