धर्मात्मा-जनका दिव्यलोकोंका सुख भोगकर उत्तम कुलमें जन्म लेना, शरीरके व्यावहारिक तथा पारमार्थिक दो रूपोंका वर्णन, अजपाजपकी विधि, भगवत्प्राप्तिके साधनोंमें भक्तियोगकी प्रधानता
गरुडजीने कहा-धर्मात्मा व्यक्ति स्वर्गके भोगोंको भोगकर पुनः निर्मल कुलमें उत्पन्न होता है, इसलिये माताके गर्भमें उसकी उत्पत्ति कैसे होती है, इस विषयमें बताइये॥१॥
हे करुणानिधे! पुण्यात्मा पुरुष इस देहके विषयमें जिस प्रकार विचार करता है, वह मैं सुनना चाहता हूँ, मुझे बताइये ॥२॥
श्रीभगवान्ने कहा-हे तार्थ्य! तुमने ठीक पूछा है, मैं तुम्हें परम गोपनीय बात बताता हूँ जिसे जान लेनेमात्रसे मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है॥३॥
(पहले) मैं तुम्हें शरीरके पारमार्थिक स्वरूपके विषयमें बतलाता हूँ, जो ब्रह्माण्डके गुणोंसे सम्पन्न है और योगियोंके द्वारा धारण करनेयोग्य है॥४॥
इस पारमार्थिक शरीरमें जिस प्रकार योगीलोग षट्चक्रका चिन्तन करते हैं और ब्रह्मरन्ध्रमें सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्मका (जिस प्रकार) ध्यान करते हैं, वह सब मुझसे सुनो॥५॥
पुण्यात्मा जीव पवित्र आचरण करनेवाले लक्ष्मीसम्पन्न गृहस्थोंके घरमें जैसे उत्पन्न होता है और उसके पिता एवं माताके विधान तथा नियम जिस प्रकारके होते हैं, उनके विषयमें तुमसे कहता हूँ॥६॥
स्त्रियोंके ऋतुकालमें चार दिनतक उनका त्याग कर देना चाहिये (उनसे दूर रहना चाहिये)। उतने समयतक उनका मुख भी नहीं देखना चाहिये; क्योंकि उस समय उनके शरीरमें पापका निवास रहता है॥७॥
चौथे दिन वस्त्रोंसहित स्नान करनेके अनन्तर वह नारी शुद्ध होती है तथा एक सप्ताहके बाद पितरों एवं देवताओंके पूजन, अर्चन तथा व्रत करनेके योग्य होती है॥ ८॥
एक सप्ताहके मध्यमें जो गर्भधारण होता है, उससे मलिन मनोवृत्तिवाली सन्तानका जन्म होता है।* प्रायः ऋतुकालके आठवें दिन गर्भाधानसे पुत्रकी उत्पत्ति होती है॥९॥
ऋतुकालके अनन्तर युग्म रात्रियोंमें गर्भाधान होनेसे पुत्र और अयुग्म (विषम) रात्रियोंमें गर्भाधानसे कन्याकी उत्पत्ति होती है, इसलिये पूर्वकी सात रात्रियोंको छोड़कर युग्मरात्रियोंमें ही समागम करना चाहिये॥१०॥
स्त्रियोंके रजोदर्शनसे सामान्यतः सोलह रात्रियोंतक ऋतुकाल बताया गया है। चौदहवीं रात्रिको गर्भाधान होनेपर गुणवान्, भाग्यवान् और धार्मिक पुत्रकी उत्पत्ति होती है। प्राकृत जीवों (सामान्य मनुष्यों)-को गर्भाधानके निमित्त उस रात्रिमें गर्भाधानका अवसर प्राप्त नहीं होता॥ ११-१२॥
पाँचवें दिन स्त्रीको मधुर भोजन करना चाहिये। कडुआ, खारा, तीखा तथा उष्ण भोजनसे दूर रहना चाहिये॥१३॥
तब स्त्रीका वह क्षेत्र (गर्भाशय) ओषधिका पात्र हो जाता है और उसमें संस्थापित बीज अमृतकी तरह सुरक्षित रहता है। उस औषधि-क्षेत्रमें बीजवपन (गर्भाधान) करनेवाला स्वामी अच्छे फल (स्वस्थ संतान)-को प्राप्त करता है॥ १४॥
ताम्बूल खाकर, पुष्प और श्रीखण्ड (चन्दन)-से युक्त होकर तथा पवित्र वस्त्र धारण करके मनमें धार्मिक भावोंको रखकर पुरुषको सुन्दर शय्यापर संवास करना चाहिये ॥ १५ ॥
गर्भाधानके समय पुरुषकी मनोवृत्ति जिस प्रकारकी होती है, उसी प्रकारके स्वभाववाला जीव गर्भमें प्रविष्ट होता है॥ १६॥
बीजका स्वरूप धारण करके चैतन्यांश पुरुषके शुक्रमें स्थित रहता है। पुरुषकी कामवासना, चित्तवृत्ति तथा शुक्र जब एकत्वको प्राप्त होते हैं, तब स्त्रीके गर्भाशयमें पुरुष द्रवित (स्खलित) होता है, स्त्रीके गर्भाशयमें शुक्र और शोणितके संयोगसे पिण्डकी उत्पत्ति होती है॥ १७-१८॥
गर्भमें आनेवाला सुकृतीपुत्र पिता-माताको परम आनन्द देनेवाला होता है और उसके पुंसवन आदि समस्त संस्कार किये जाते हैं ॥ १९॥
पुण्यात्मा पुरुष ग्रहोंकी उच्च स्थितिमें* जन्म प्राप्त करता है। ऐसे पुत्रकी उत्पत्तिके समय ब्राह्मण बहुत सारा धन प्राप्त करते हैं ॥ २० ॥
वह पुत्र विद्या और विनयसे सम्पन्न होकर पिताके घरमें बढ़ता है और सत्पुरुषोंके संसर्गसे सभी शास्त्रोंमें पाण्डित्य-सम्पन्न हो जाता है॥ २१॥
वह तरुणावस्थामें दिव्य अंगना ततश्च आदिका योग प्राप्त करता है और दानशील तथा धनी होता है। पूर्वमें किये हुए तपस्या, तीर्थसेवन आदि महापुण्योंके फलका उदय होनेपर वह नित्य आत्मा और अनात्मा (अर्थात् परमात्मा और उससे भिन्न पदार्थों)के विषयमें विचार करने लगता है॥ २२ ॥
जिससे उसे यह बोध होता है कि सांसारिक मनुष्य भ्रमवश रस्सीमें सर्पके आरोपकी भाँति वस्तु अर्थात् सच्चिदानन्द ब्रह्ममें अवस्तु अर्थात् अज्ञानादि जगत्-प्रपंचका अध्यारोप करता है। तब अपवाद (अर्थात् मिथ्याज्ञान या भ्रमज्ञानके निराकरण)-से रस्सीमें सर्पकी भ्रान्तिके निराकरणपूर्वक रस्सीकी वास्तविकताके ज्ञानके समान ब्रह्मरूपी सत्य वस्तुमें अज्ञानादि जगत्-प्रपंचकी मिथ्या प्रतीतिके दूर हो जानेपर और ब्रह्मरूप सत्य वस्तुका सम्यक् ज्ञान हो जानेपर वह उसी सच्चिदानन्द ब्रह्मका चिन्तन करने लगता है ॥ २३॥
सांसारिक पदार्थरूप असत् (अवस्तु) या अनात्म पदार्थोंसे अन्वित (या सम्बद्ध) होनेवाले इस ब्रह्मके संगरहित शुद्धस्वरूपके सम्यक् बोधके लिये मैं तुम्हें इसके साथ अन्वित या सम्बद्ध प्रतीत होनेवाले पृथिवी आदि अनात्मवर्गके अर्थात् पंचभूतों आदिके गुणोंको बतलाता हूँ॥ २४॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश-ये (पाँच) स्थूलभूत कहे जाते हैं। यह शरीर-इन्हीं पाँच भूतोंसे बनता है, इसीलिये पांचभौतिक कहलाता है॥ २५ ॥
हे खगेश्वर ! त्वचा, हड्डियाँ, नाडियाँ, रोम तथा मांस-ये पाँच भूमिके गुण हैं, यह मैंने तुम्हें बतलाया है ॥ २६ ॥
लार, मूत्र, वीर्य, मज्जा तथा पाँचवाँ रक्त-ये पाँच जलके गुण कहे गये हैं। अब तेजके गुणोंको सुनो ॥ २७॥
हे तार्थ्य! योगियोंके द्वारा सर्वत्र क्षुधा, तृषा, आलस्य, निद्रा और कान्ति-ये पाँच गुण तेजके कहे गये हैं ॥ २८॥
सिकुड़ना, दौड़ना, लाँघना, फैलाना तथा चेष्टा करना—ये पाँच गुण वायुके कहे गये हैं ॥ २९॥
घोष (शब्द), छिद्र, गाम्भीर्य, श्रवण और सर्वसंश्रय (समस्त तत्त्वोंको आश्रय प्रदान करना)-ये पाँच गुण तुम्हें प्रयत्नपूर्वक आकाशके जानने चाहिये॥३०॥
पूर्वजन्मके कर्मोंसे अधिवासित मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त—यह अन्तःकरणचतुष्टय कहा जाता है॥ ३१॥
श्रोत्र (कान), त्वक्, जिह्वा, चक्षु (नेत्र), नासिका-ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा वाक्, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ- ये कर्मेन्द्रियाँ हैं ॥ ३२॥
दिशा, वायु, सूर्य, प्रचेता और अश्विनीकुमार-ये ज्ञानेन्द्रियोंके तथा वह्नि, इन्द्र, विष्णु, मित्र तथा प्रजापति-ये कर्मेन्द्रियोंके देवता कहे गये हैं॥३३॥
देहके मध्यमें इडा, पिंगला, सुषुम्णा, गान्धारी, गजजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू और शंखिनीये दस प्रधान नाडियाँ स्थित हैं ॥ ३४-३५ ॥
प्राण, अपान, समान, उदान तथा व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय-ये दस वायु हैं ॥ ३६॥
हृदयमें प्राणवायु, गुदामें अपानवायु, नाभिमण्डलमें समानवायु, कण्ठदेशमें उदानवायु और सम्पूर्ण शरीरमें व्यानवायु व्याप्त रहते हैं ॥ ३७॥
उद्गार (डकार या वमन)-में नागवायु हेतु है, जिसके द्वारा उन्मीलन होता है वह कूर्मवायु कहा जाता है। कृकल नामक वायु क्षुधाको उद्दीप्त करता है। देवदत्त नामक वायु जंभाई कराता है, सर्वव्यापी धनंजयवायु मृत्युके पश्चात् भी मृतशरीरको नहीं छोड़ता। ग्रासके रूपमें खाया हुआ अन्न सभी प्राणियोंके शरीरको पुष्ट करता है॥ ३८-३९॥
उस पुष्टिकारक अन्नके सारांशभूत रसको व्यान नामका वायु शरीरकी सभी नाडियोंमें पहुँचाता है। उस वायुके द्वारा भुक्त आहार दो भागोंमें विभक्त कर दिया जाता है ॥ ४० ॥
गुदाभागमें प्रविष्ट होकर सम्यक् रूपसे अन्न और जलको पृथक्-पृथक् करके अग्निके ऊपर जल और जलके ऊपर अन्नको करके अग्निके नीचे वह प्राणवायु स्वतः स्थित होकर उस अग्निको धीरे-धीरे धौंकता है। उसके द्वारा धौंके जानेपर अग्नि किट्ट (मल) और रसको पृथक्-पृथक् कर देता है ॥ ४१-४२॥
तब वह व्यानवायु उस रसको सम्पूर्ण शरीरमें पहुँचाता है। रससे पृथक् किया गया किट्ट (मल) शरीरके कर्ण, नासिका आदि बारह छिद्रोंसे बाहर निकलता है॥ ४३ ॥
कर्णाऽक्षिनासिका जिह्वा दन्ता नाभिर्नखा गुदम् । गुह्यं शिरा वपुलॊम मलस्थानानि चक्षते ॥४४॥ एवं सर्वे प्रवर्तन्ते स्वस्वकर्मणि वायवः। उपलभ्यात्मनः सत्तां सूर्याल्लोकं यथा जनाः॥४५॥
कान, आँख, नासिका, जिह्वा, दन्त, नाभि, नख, गुदा, गुप्तांग तथा शिराएँ और समस्त शरीर (-में स्थित छिद्र) एवं लोम-ये बारह मलके (निवास-) स्थान हैं ॥ ४४ ॥
जैसे सूर्यसे प्रकाश प्राप्त करके प्राणी अपने-अपने कर्मों में प्रवृत्त होते हैं, उसी प्रकार (चैतन्यांशसे सत्ता प्राप्त करके) ये सभी वायु अपने-अपने कर्ममें प्रवृत्त होते हैं ॥ ४५ ॥
हे खग! अब नरदेहके दो रूपोंके विषयमें सुनो-एक व्यावहारिक तथा दूसरा पारमार्थिक है॥ ४६॥
हे विनतासुत! व्यावहारिक शरीरमें साढ़े तीन करोड़ रोम, सात लाख केश, बीस नख तथा बत्तीस १ दाँत सामान्यतः बताये गये हैं। इस शरीरमें एक हजार पल मांस, सौ पल रक्त, दस पल मेदा, सत्तर पल त्वचा, बारह पल मज्जा और तीन पल महारक्त होता है॥ ४७-४९॥
पुरुषके शरीरमें दो कुडव शुक्र और | स्त्रीके शरीरमें एक कुडव शोणित (रज) होता है। सम्पूर्ण शरीरमें तीन सौ साठ हड्डियाँ कही गयी हैं ॥ ५० ॥
शरीरमें स्थूल और सूक्ष्मरूपसे करोड़ों नाडियाँ हैं। इसमें पचास पल पित्त और उसका आधा अर्थात् पचीस पल श्लेष्मा (कफ) बताया गया है॥५१॥
सदा होनेवाले विष्ठा और मूत्रका प्रमाण निश्चित नहीं किया गया है। व्यावहारिक शरीर इन (उपर्युक्त) गुणोंसे युक्त है॥५२॥
पारमार्थिक शरीरमें सभी चौदहों भुवन, सभी पर्वत, सभी द्वीप एवं सभी सागर तथा | सूर्य आदि ग्रह (सूक्ष्मरूपसे) विद्यमान रहते हैं ॥ ५३॥
पारमार्थिक शरीरमें मूलाधार आदि छः चक्र होते हैं।ब्रह्माण्डमें जो गुण कहे गये हैं, वे सभी इस शरीरमें स्थित हैं ॥५४॥
योगियोंके धारणास्पद उन गुणोंको मैं बताता हूँ, जिनकी भावना करनेसे जीव विराट् स्वरूपका भागी हो जाता है॥ ५५ ॥
पैरके तलवेमें तललोक तथा पैरके ऊपर वितललोक जानना चाहिये। इसी प्रकार जानुमें सुतललोक और जाँघोंमें महातल जानना चाहिये। सक्थिके मूलमें तलातल, गुह्यस्थानमें रसातल, कटिप्रदेश में पाताल-(इस प्रकार पैरोंके तलवोंसे लेकर कटिपर्यन्त) सात अधोलोक कहे गये हैं ॥ ५६-५७॥
नाभिके मध्यमें भूर्लोक, नाभिके ऊपर भुवर्लोक, हृदयमें स्वर्लोक, कण्ठमें महर्लोक, मुखमें जनलोक, ललाटमें तपोलोक और ब्रह्मरन्ध्रमें सत्यलोक स्थित है। इस प्रकार चौदहों लोक पारमार्थिक शरीरमें स्थित हैं ॥५८-५९॥
त्रिकोणके मध्यमें मेरु, अध:कोणमें मन्दर, दाहिने कोणमें कैलास, वामकोणमें हिमाचल, ऊर्ध्वरेखामें निषध, दाहिनी ओरकी रेखामें गन्धमादन तथा बायीं ओरकी रेखामें रमणाचल नामक पर्वत स्थित है। ये सात कुलपर्वत इस पारमार्थिक शरीरमें हैं॥६०-६१ ॥
अस्थिस्थाने भवेज्जम्बूः शाको मज्जासु संस्थितः । कुशद्वीपः स्थितो मांसे क्रौञ्चद्वीपः शिरासु च॥६२॥ त्वचायां शाल्मलीद्वीपो गोमेदो रोमसञ्चये । नखस्थं पुष्करं विद्यात् सागरास्तदनन्तरम्॥६३॥
अस्थिमें जम्बूद्वीप, मज्जामें शाकद्वीप, मांसमें कुशद्वीप, शिराओंमें क्रौंचद्वीप, त्वचामें शाल्मलीद्वीप, रोमसमूहमें गोमेदद्वीप और नखमें पुष्करद्वीपकी स्थिति जाननी चाहिये। तत्पश्चात् सागरोंकी स्थिति इस प्रकार है-॥६२-६३॥
हे विनतासुत! क्षारसमुद्र मूत्रमें, क्षीरसागर दूधमें, सुराका सागर श्लेष्म (कफ)-में, घृतका सागर मज्जामें, रसका सागर शरीरस्थ रसमें और दधिसागर रक्तमें स्थित समझना चाहिये। स्वादूदकसागरको लम्बिकास्थान (कण्ठके लटकते हुए भाग अथवा उपजिह्वा या काकल)-में समझना चाहिये॥६४-६५ ॥
नादचक्रमें सूर्य, बिन्दुचक्रमें चन्द्रमा, नेत्रोंमें मंगल और हृदयमें बुधको स्थित समझना चाहिये। विष्णुस्थान अर्थात् नाभिमें स्थित मणिपूरकचक्रमें बृहस्पति तथा शुक्रमें शुक्र स्थित हैं, नाभिस्थान नाभि (गोलक)-में शनैश्चर स्थित है और मुखमें राहु स्थित कहा गया है। वायुस्थानमें केतु स्थित है, इस प्रकार समस्त ग्रहमण्डल इस पारमार्थिक शरीरमें विद्यमान है। इस प्रकार अपने इस शरीरमें समस्त ब्रह्माण्डका चिन्तन करना चाहिये॥६६-६८॥
प्रभातकालमें सदा पद्मासनमें स्थित होकर षट्चक्रोंका चिन्तन करे और यथोक्त क्रमसे अजपा-जप करे॥६९॥
अजपा नामकी गायत्री मुनियोंको मोक्ष देनेवाली है। इसके संकल्पमात्रसे मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है॥ ७० ॥
हे तार्क्ष्य! सुनो, मैं तुम्हें अजपा-जपका उत्तम क्रम बताता हूँ-जिसको सर्वदा करनेसे जीव जीवभावसे मुक्त हो जाता है॥७१॥
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध तथा आज्ञा–इन्हें षट्चक्र कहा जाता है॥ ७२ ॥
इन चक्रोंका क्रमशः मूलाधार (गुदप्रदेशके ऊपर)-में, लिंगदेशमें, नाभिमें, हृदयमें, कण्ठमें, भौंहोंके मध्यमें तथा ब्रह्मरन्ध्र (सहस्रार)-में चिन्तन करना चाहिये॥७३॥
मूलाधारचक्र चतुर्दलाकार, अग्निके समान और व से स पर्यन्त वर्णों (अर्थात् व, श, ष और स)-का आश्रय है। स्वाधिष्ठानचक्र सूर्यके समान दीप्तिमान् ब से लेकर ल पर्यन्त वर्णों (अर्थात् ब, भ, म, य, र, ल)-का आश्रयस्थान और षड्दलाकार है। मणिपूरकचक्र रक्तिम आभावाला, दशदलाकार और ड से लेकर फ पर्यन्त वर्णों (अर्थात् ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ)-का आधार है। अनाहतचक्र द्वादशदलाकार, स्वर्णिम आभावाला तथा क से ठ पर्यन्त वर्णों (अर्थात् क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ)-से युक्त है॥ ७४ ॥
विशुद्धचक्र षोडशदलाकार, सोलह स्वरों (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लु, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:)से युक्त कमल और चन्द्रमाके समान कान्तिवाला होता है, आज्ञाचक्र ‘हं सः’ इन दो अक्षरोंसे युक्त, द्विदलाकार और रक्तिम वर्णका है। उसके ऊपर (ब्रह्मरन्ध्रमें) देदीप्यमान सहस्रदलकमलाकारचक्र है, जो कि सदा सत्यमय, आनन्दमय, शिवमय, ज्योतिर्मय और शाश्वत है॥ ७५ ॥
इन चक्रोंमें क्रमश: गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, जीवात्मा, गुरु तथा व्यापक परब्रह्मका चिन्तन करना चाहिये। अर्थात् मूलाधारचक्रमें गणेशका, स्वाधिष्ठानचक्रमें ब्रह्माजीका, मणिपूरकचक्रमें विष्णुका, अनाहतचक्रमें शिवका, विशुद्धचक्रमें जीवात्माका, आज्ञाचक्रमें गुरुका और सहस्रारचक्रमें सर्वव्यापी परब्रह्मका चिन्तन करना चाहिये ॥७६ ॥
विद्वानोंने एक दिन-रातमें २१६०० श्वासोंकी सूक्ष्मगति कही है। ‘हं’ का उच्चारण करते हुए श्वास बाहर निकलता है और ‘सः’ की ध्वनि करते हुए अंदर प्रविष्ट होता है। इस प्रकार तात्त्विकरूपसे जीव ‘हंसः, हंसः’ इस मन्त्र (-से परमात्मा)-का निरन्तर जप करता रहता है॥७७-७८ ॥
जीवके द्वारा अहोरात्रमें किये जानेवाले इस अजपा-जपके छ: सौ मन्त्र गणेशके लिये, छः हजार ब्रह्माके लिये, छः हजार विष्णुके लिये, छः हजार शिवके लिये, एक हजार जीवात्माके लिये, एक हजार गुरुके लिये और एक हजार मन्त्रजप चिदात्माके लिये निवेदित करने चाहिये॥७९-८०॥
श्रेष्ठ सम्प्रदायवेत्ता अरुण आदि मुनि इन षट्चक्रोंमें ब्रह्ममयूख (किरण)-के रूपमें स्थित गणेश आदि देवताओंका चिन्तन करते हैं॥ ८१ ॥
शुक आदि मुनि भी अपने शिष्योंको इनका उपदेश करते हैं। अतः महापुरुषोंकी प्रवृत्तिको ध्यानमें रखकर विद्वानोंको सदा इन चक्रोंमें देवताओंका ध्यान करना चाहिये ॥ ८२ ॥
सभी चक्रोंमें अनन्यभावसे उन देवताओंकी मानस पूजा करके गुरुके उपदेशके अनुसार अजपा गायत्रीका जप करना चाहिये ॥ ८३॥
इसके बाद ब्रह्मरन्ध्रमें अधोमुखरूपमें स्थित सहस्रदलकमलमें हंसपर विराजमान, वर तथा अभयमुद्रायुक्त दोनों हस्तकमलोंकी स्थितिवाले श्रीगुरुका ध्यान करना चाहिये॥८४ ॥
गुरुचरणोंसे निकली हुई अमृतमयी धारासे अपने शरीरको प्रक्षालित होता हुआ-सा चिन्तन करे। फिर पंचोपचारसे पूजा करके स्तुतिपूर्वक प्रणाम करना चाहिये॥ ८५ ॥
तदनन्तर कुण्डलिनीका ध्यान करना चाहिये, जो षट्चक्रोंमें साढ़े तीन वलयमें स्थित है और आरोह तथा अवरोहके रूपमें षट्चक्रमें संचरण करती है ॥ ८६ ॥
तदनन्तर ब्रह्मरन्ध्रसे बहिर्गत सुषुम्णा नामक धाम (प्रकाशमार्ग)-का ध्यान करना चाहिये। उस मार्गसे जानेवाले पुरुष विष्णुके परम पदको प्राप्त करते हैं ॥ ८७॥
इसके अनन्तर ब्राह्म* नामक मुहूर्तमें मेरे द्वारा चिन्तित आनन्दस्वरूप स्वप्रकाश, सनातनरूपका सदा ध्यान करना चाहिये॥८८॥
इस प्रकार गुरुके उपदेशसे मनको निश्चल बनाये, अपने प्रयत्नसे ऐसा नहीं करे; क्योंकि गुरुके उपदेशके बिना साधकका पतन हो सकता है॥ ८९ ॥
इस प्रकार अन्तर्याग’ सम्पन्न करके बहिर्याग का अनुष्ठान करना चाहिये। स्नान तथा संध्या आदि कर्मोंको करके विष्णु और शिवकी पूजा करनी चाहिये॥९० ॥
देहका अभिमान रखनेवाले (अर्थात् पांचभौतिक शरीरको ही अपना शरीर समझनेवाले) व्यक्तियोंकी वृत्ति अन्तर्मुखी नहीं हो सकती। इसलिये उनके लिये सरलतापूर्वक की जा सकनेवाली मेरी भक्ति ही मोक्षसाधिका हो सकती है॥९१॥
यद्यपि तपस्या और योगसाधना आदि भी मोक्षके मार्ग हैं तो भी इस संसारचक्रमें फँसे हुए व्यक्तियोंके उद्धारके लिये मेरा भक्तिमार्ग ही समीचीन उपाय है॥९२॥
ब्रह्मा आदि देवोंने वेद और शास्त्रका पुनः-पुनः विचार करके तीन बार यही सिद्धान्त सुनिश्चित किया है॥ ९३॥
यज्ञादि सद्धर्म भी अन्तःकरणकी शुद्धिके हेतु हैं और इस शुद्धिके फलस्वरूप मेरी भक्ति प्राप्त होती है, जिसे प्राप्त करके व्यक्ति पुनः जन्म-मरणादि दु:खोंसे पीडित नहीं होता ॥ ९४॥
हे तात ! जो सुकृती मनुष्य इस प्रकारका आचरण करता है, वह मेरी भक्तिके योगसे सनातन मोक्षपद प्राप्त करता है॥९५ ॥
॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ‘सुकृतिजनजन्माचरणनिरूपण’ नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १५ ॥