ग्यारहवाँ अध्याय

दशगात्र-विधान

गरुडजी बोले-हे केशव! आप दशगात्रकी विधिके सम्बन्धमें बताइये, इसके करनेसे कौन-सा पुण्य प्राप्त होता है और पुत्रके अभावमें इसको किसे करना चाहिये ॥१॥

श्रीभगवान् बोले-हे तार्क्ष्य ! अब मैं दशगात्रविधिको तुमसे कहता हूँ, जिसको करनेसे सत्पुत्र पितृ-ऋणसे मुक्त हो जाता है॥ २॥

पुत्र (पिताके मरनेपर) शोकका परित्याग करके धैर्य धारणकर सात्त्विकभावसे समन्वित होकर पिताका पिण्डदान आदि कर्म करे। उसे अश्रुपात नहीं करना चाहिये ॥३॥

क्योंकि बान्धवोंके द्वारा किये गये अश्रुपात और श्लेष्मपातको विवश होकर (पितारूपी) प्रेत पान करता है। इसलिये इस समय निरर्थक शोक करके रोना नहीं चाहिये॥ ४॥

यदि मनुष्य हजारों वर्ष रात-दिन शोक करता रहे, तो भी मृत प्राणी कहीं भी दिखायी नहीं पड़ सकता ॥ ५॥

जिसकी उत्पत्ति हुई है, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है और जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। इसलिये बुद्धिमान्को इस अवश्यम्भावी जन्म-मृत्युके विषयमें शोक नहीं करना चाहिये॥६॥

ऐसा कोई दैवी अथवा मानवीय उपाय नहीं है, जिसके द्वारा मृत्युको प्राप्त हुआ व्यक्ति पुनः यहाँ वापस आ सके॥७॥

अवश्यम्भावी भावोंका प्रतीकार यदि सम्भव होता तो नल, राम और युधिष्ठिर महाराज आदि दुःख न प्राप्त करते ॥ ८॥

इस जगत्में सदाके लिये किसीका किसी भी व्यक्तिके साथ रहना सम्भव नहीं है। जब अपने शरीरके साथ भी जीवात्माका सार्वकालिक सम्बन्ध सम्भव नहीं है तो फिर अन्य जनोंके आत्यन्तिक सहवासकी तो बात ही क्या? ॥९॥

जिस प्रकार कोई पथिक छायाका आश्रय लेकर विश्राम करता है और विश्राम करके पुनः चला जाता है, उसी प्रकार प्राणीका संसारमें परस्पर मिलन होता है। पुनः प्रारब्ध-कर्मोंको भोगकर वह अपने गन्तव्यको चला जाता है॥१०॥

प्रात:काल जो भोज्य पदार्थ बनाया जाता है, वह सायंकाल नष्ट हो जाता है-ऐसे (नष्ट होनेवाले) अन्नके रससे पुष्ट होनेवाले शरीरकी नित्यताकी कथा ही क्या? ॥ ११॥

पितृमरणसे होनेवाले दुःखके लिये यह (पूर्वोक्त) विचार औषधस्वरूप है। अतः इसका सम्यक् चिन्तन करके अज्ञानसे होनेवाले शोकका परित्याग कर पुत्रको अपने पिताकी क्रिया करनी चाहिये ॥ १२ ॥

पुत्रके अभावमें पत्नीको और पत्नीके अभावमें सहोदर भाईको तथा सहोदर भाईके अभावमें ब्राह्मणकी क्रिया उसके शिष्यको अथवा किसी सपिण्डी व्यक्तिको करनी चाहिये॥ १३ ॥

हे गरुड! पुत्रहीन व्यक्तिके मरनेपर उसके बड़े अथवा छोटे भाईके पुत्रों या पौत्रोंके द्वारा दशगात्र आदि कार्य कराने चाहिये ॥ १४॥

एक पितासे उत्पन्न होनेवाले भाइयोंमें यदि एक भी पुत्रवान् हो तो उसी पुत्रसे सभी भाई पुत्रवान् हो जाते हैं, ऐसा मनुजीने कहा है॥ १५ ॥

यदि एक पुरुषकी बहुत-सी पत्नियोंमें कोई एक पुत्रवती हो जाय तो उस एक ही पुत्रसे वे सभी पुत्रवती हो जाती हैं ॥ १६ ॥

सभी (भाई) पुत्रहीन हों तो उनका मित्र पिण्डदान करे अथवा सभीके अभावमें पुरोहितको ही क्रिया करनी चाहिये। क्रियाका लोप नहीं करना चाहिये ॥ १७॥

यदि कोई स्त्री अथवा पुरुष अपने इष्ट-मित्रकी और्ध्वदैहिक क्रिया करता है तो अनाथ प्रेतका संस्कार करनेसे उसे कोटियज्ञका फल प्राप्त होता है॥ १८ ॥

हे खग! पिताका दशगात्रादि कर्म पुत्रको करना चाहिये। किंतु यदि ज्येष्ठ पुत्रकी मृत्यु हो जाय तो अति स्नेह होनेपर भी पिता उसकी दशगात्रादि क्रिया न करे ॥ १९॥

बहुत-से पुत्रोंके रहनेपर भी दशगात्र, सपिण्डन तथा अन्य षोडश श्राद्ध एक ही पुत्रको करना चाहिये॥ २०॥

पैतृक सम्पत्तिका बँटवारा हो जानेपर भी दशगात्र, सपिण्डन और षोडश श्राद्ध एकको ही करना चाहिये, किंतु सांवत्सरिक आदि श्राद्धोंको विभक्त पुत्र पृथक्-पृथक् करें॥ २१ ॥

इसलिये ज्येष्ठ पुत्रको एक समय भोजन, भूमिपर शयन तथा ब्रह्मचर्य धारण करके पवित्र होकर भक्तिभावसे दशगात्र और श्राद्धविधान करने चाहिये॥ २२॥

पृथ्वीकी सात बार परिक्रमा करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वही फल पिता-माताकी क्रिया करके पुत्र प्राप्त करता है॥ २३॥

दशगात्रसे लेकर वार्षिक श्राद्धपर्यन्त पिताकी श्राद्धक्रिया करनेवाला पुत्र गयाश्राद्धका फल प्राप्त करता है॥ २४ ॥

कूप, तालाब, बगीचा, तीर्थ अथवा देवालयके प्रांगणमें जाकर मध्यमयाम (मध्याह्नकाल)-में बिना मन्त्रके स्नान करना चाहिये ॥ २५ ॥

पवित्र होकर वृक्षके मूलमें दक्षिणाभिमुख होकर वेदी बनाकर उसे गोबरसे लीपे। उस वेदीमें पत्तेपर कुशसे बने हुए दर्भमय ब्राह्मणको स्थापित करके पाद्यादिसे उसका पूजन करे और ‘अतसीपुष्पसंकाशं०’* इत्यादि मन्त्रोंसे उसे प्रणाम करे॥ २६-२७॥

इसके पश्चात् उसके आगे पिण्ड प्रदान करनेके लिये कुशका आसन रखकर उसके ऊपर नाम-गोत्रका उच्चारण करते हुए पके हुए चावल अथवा जौकी पीठी (आटे)-से बने हुए पिण्डको प्रदान करना चाहिये। उशीर (खस), चन्दन और भृगराज (भंगरैया)-का पुष्प निवेदित करे। धूप-दीप, नैवेद्य, मुखवास (ताम्बूलपान) तथा दक्षिणा समर्पित करे॥२८-२९॥

तदनन्तर काकान्न, दूध और जलसे परिपूर्ण पात्र तथा वर्धमान (वृद्धिक्रमसे दी जानेवाली) जलांजलि प्रदान करते हुए यह कहे कि-‘ ‘अमुक नामके प्रेतके लिये मेरे द्वारा प्रदत्त (यह पिण्डादि सामग्री) प्राप्त हो’॥ ३०॥

अन्न, वस्त्र, जल, द्रव्य अथवा अन्य जो भी वस्तु ‘प्रेत’ शब्दका उच्चारण करके मृत प्राणीको दी जाती है, उससे उसे अनन्त फल प्राप्त होता है (अक्षय तृप्ति प्राप्त होती है)॥३१॥

इसलिये प्रथम दिनसे लेकर सपिण्डीकरणके पूर्व स्त्री और पुरुष दोनोंके लिये ‘प्रेत’ शब्दका उच्चारण करना चाहिये॥३२॥

पहले दिन विधिपूर्वक जिस अन्नका पिण्ड दिया जाता है, उसी अन्नसे विधिपूर्वक नौ दिनतक पिण्डदान करना चाहिये ॥ ३३ ॥

नौवें दिन सभी सपिण्डीजनोंको मृत प्राणीके स्वर्गकी कामनासे तैलाभ्यंग करना चाहिये और घरके बाहर स्नान करके दूब एवं लाजा (लावा) लेकर स्त्रियोंको आगे करके मृत प्राणीके घर जाकर उससे कहे कि ‘दूर्वाके समान आपके कुलकी वृद्धि हो तथा लावाके समान आपका कुल विकसित हो’-ऐसा कह करके दूर्वासमन्वित लावाको उसके घरमें (चारों ओर) बिखेर दे॥ ३४-३६ ॥

हे खगेश्वर! दसवें दिन मांससे पिण्डदान करना चाहिये,किंतु कलियुगमें मांससे पिण्डदान शास्त्रतः निषिद्ध होनेके कारण माष (उड़द)-से पिण्डदान करना चाहिये ॥ ३७॥

दसवें दिन क्षौरकर्म और बन्धु-बान्धवोंको मुण्डन कराना चाहिये। क्रिया करनेवाले पुत्रको भी पुनः मुण्डन कराना चाहिये ॥ ३८॥

दस दिनतक एक ब्राह्मणको प्रतिदिन मिष्टान्न भोजन कराना चाहिये और हाथ जोड़कर भगवान् विष्णुका ध्यान करके प्रेतकी मुक्तिके लिये (इस प्रकार) प्रार्थना करनी चाहिये ॥ ३९॥

अतसीके फूलके | समान कान्तिवाले, पीतवस्त्र धारण करनेवाले अच्युत भगवान् गोविन्दको जो प्रणाम करते हैं, उन्हें कोई भय नहीं होता ॥ ४० ॥

हे आदि-अन्तसे रहित, शंख-चक्र और गदा धारण करनेवाले, अविनाशी तथा कमलके समान | नेत्रवाले देव विष्णु! आप प्रेतको मोक्ष प्रदान करनेवाले हों॥४१॥

इस प्रकार प्रतिदिन श्राद्धके अन्तमें यह प्रार्थना-मन्त्र पढ़ना चाहिये। तदनन्तर स्नान करके घर जाकर गोग्रास देनेके उपरान्त भोजन करना चाहिये ॥ ४२॥

इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ‘दशगात्रविधिनिरूपण’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ११ ॥

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