यमलोक एवं यम-सभाका वर्णन, चित्रगुप्त आदिके भवनोंका परिचय,धर्मराजनगरके चार द्वार, पुण्यात्माओंका धर्मसभामें प्रवेश
गरुडजीने कहा-हे दयानिधे! यमलोक कितना बड़ा है, कैसा है, किसके द्वारा बनाया हुआ है, वहाँकी सभा कैसी है और उस सभामें धर्मराज किनके साथ बैठते हैं? ॥ १॥
हे दयानिधे! जिन धर्मोंका आचरण करनेके कारण धार्मिक पुरुष जिन धर्ममार्गोंसे धर्मराजके भवनमें जाते हैं, उन धर्मों तथा मार्गोंके विषयमें भी आप मुझे बतलाइये॥२॥
श्रीभगवान्ने कहा-हे गरुड! धर्मराजका जो नगर नारदादि मुनियोंके लिये भी अगम्य है उसके विषयमें बतलाता हूँ, सुनो। उस दिव्य धर्मनगरको महापुण्यसे ही प्राप्त किया जा सकता है॥३॥
दक्षिण दिशा और नैर्ऋत्यकोणके मध्यमें वैवस्वत (यम)-का जो नगर है, वह सम्पूर्ण नगर वज्रका बना हुआ है, दिव्य है और असुरों तथा देवताओंसे अभेद्य है॥४॥
वह पुर चौकोर, चार द्वारोंवाला, ऊँची चहारदीवारीसे घिरा हुआ और एक हजार योजन प्रमाणवाला कहा गया है॥५॥
उस पुरमें चित्रगुप्तका सुन्दर मन्दिर है, जो पचीस योजन लम्बाई और चौड़ाईमें फैला हुआ है॥६॥
उसकी ऊँचाई दस योजन है और वह लोहेकी अत्यन्त दिव्य चहारदीवारीसे घिरा है। वहाँ आवागमनके लिये सैकड़ों गलियाँ हैं और वह पताकाओं एवं ध्वजोंसे विभूषित है॥७॥
वह विमानसमूहोंसे घिरा हुआ है और गायन-वादनसे निनादित है। चित्र बनानेमें निपुण चित्रकारोंके द्वारा चित्रित है तथा देवताओंके शिल्पियोंने उसका निर्माण किया है॥८॥
वह उद्यानों* और उपवनोंसे रमणीय है, नाना प्रकारके पक्षिगण उसमें कलरव करते हैं तथा वह चारों ओरसे गन्धर्वो तथा अप्सराओंसे घिरा है॥९॥
उस सभामें अपने परम अद्भुत आसनपर स्थित चित्रगुप्त मनुष्योंकी आयुकी यथावत् गणना करते हैं॥ १० ॥
वे मनुष्योंके पाप और पुण्यका लेखा-जोखा (अभिलेख) करनेमें त्रुटि नहीं करते। जिसने जो शुभ अथवा अशुभ कर्म किया है, चित्रगुप्तकी आज्ञासे उसे उन सबका भोग करना होता है। चित्रगुप्तके घरके पूरबकी ओर ज्वरका एक बड़ा विशाल घर है और उनके घरके दक्षिण शूल, लूता और विस्फोटके घर हैं तथा पश्चिममें कालपाश, अजीर्ण तथा अरुचिके घर हैं ॥ ११-१३॥
(चित्रगुप्तके घरके) उत्तरकी ओर राजरोग और पाण्डुरोगका घर है, ईशानकोणमें शिर:पीडाका और अग्निकोणमें मूर्छाका घर है॥ १४ ॥
नैर्ऋत्यकोणमें अतिसारका, वायव्यकोणमें शीत और दाहका स्थान है। इस प्रकार और भी अन्यान्य व्याधियोंसे चित्रगुप्तका भवन घिरा हुआ है॥ १५ ॥
चित्रगुप्त मनुष्योंके शुभाशुभ कर्मोंको लिखते हैं। चित्रगुप्तके भवनसे बीस योजन आगे नगरके मध्यभागमें धर्मराजका महादिव्य भवन है। वह दिव्य रत्नमय तथा विद्युत्की ज्वालामालाओंसे युक्त और सूर्यके समान देदीप्यमान है॥१६-१७॥
वह दो सौ योजन चौड़ा, दो सौ योजन लम्बा और पचास योजन ऊँचा है। हजार स्तम्भोंपर धारण किया गया है, वैदूर्यमणिसे मण्डित है, स्वर्णसे अलंकृत है और अनेक प्रकारके हर्म्य (धनिकोंके भवन) और प्रासादगृह (देवसदन तथा राजसदन)-से परिपूर्ण है॥ १८-१९॥
(वह भवन) शरत्कालीन मेघके समान उज्ज्वल, निर्मल एवं सुवर्णके बने हुए कलशोंसे अत्यन्त मनोहर है, (उसमें) चित्र (बहुरंगी) रंगके स्फटिकसे बनी हुई सीढ़ियाँ हैं और वह वज्र (हीरा)-की कुट्टिम (फर्श)-से सुशोभित है॥ २० ॥
गवाक्षों (रोशनदानों)-में मोतियोंके झालर लगे हैं। वह पताकाओं और ध्वजोंसे विभूषित, घण्टा और नगाड़ोंसे निनादित तथा स्वर्णके बने तोरणोंसे मण्डित है॥ २१॥
वह अनेक आश्चर्योंसे परिपूर्ण और स्वर्णनिर्मित सैकड़ों किवाड़ोंसे युक्त है तथा कण्टकरहित नाना वृक्ष, लताओं एवं गुल्मों (झाड़ियों)-से सुशोभित है ॥ २२ ॥
इसी प्रकार अन्य भूषणोंसे भी वह (भवन) सदा भूषित रहता है। विश्वकर्माने अपने आत्मयोगके प्रभावसे उसका निर्माण किया है ॥ २३ ॥
उस (धर्मराजके) भवनमें सौ योजन लम्बी-चौड़ी दिव्य सभा है जो सूर्यके समान प्रकाशित, चारों ओरसे देदीप्यमान तथा इच्छानुसार स्वरूप धारण करनेवाली है। वहाँ न अधिक ठंडी है, न अधिक गरमी। वह मनको अत्यन्त हर्षित करनेवाली है। उसमें रहनेवाले किसीको न कोई शोक होता है, न वृद्धावस्था सताती है, न भूख-प्यास लगती है और न किसीके साथ अप्रिय घटना ही होती है॥ २४-२५ ॥
देवलोक और मनुष्यलोकमें जितने काम (काम्य-विषय-अभिलाषाएँ) हैं, वे सभी वहाँ उपलब्ध हैं । वहाँ सभी तरहके रसोंसे परिपूर्ण भक्ष्य और भोज्य सामग्रियाँ चारों ओर प्रचुर मात्रामें हैं ॥ २६ ॥
वहाँ सरस, शीतल तथा उष्ण जल भी उपलब्ध है। उसमें पुण्यमय शब्दादि विषय भी उपलब्ध हैं और नित्य मनोवांछित फल प्रदान करनेवाले कल्पवृक्ष भी वहाँ हैं ॥ २७ ॥ हे तार्क्ष्य! वह सभा बाधारहित, रमणीय और कामनाओंको पूर्ण करनेवाली है। विश्वकर्माने दीर्घ कालतक तपस्या करके उसका निर्माण किया है ॥ २८ ॥
उसमें उग्र (कठोर) तपस्या करनेवाले, सुव्रती, सत्यवादी, शान्त, संन्यासी, सिद्ध एवं पवित्र कर्म करके शुद्ध हुए पुरुष जाते हैं ॥ २९॥
उन सभीका देह तेजोमय होता है। वे आभूषणोंसे अलंकृत तथा निर्मल वस्त्रोंसे युक्त होते हैं तथा अपने किये हुए पुण्य कर्मोंके कारण वहाँ विभूषित होकर विराजमान रहते हैं ॥ ३० ॥
दस योजन विस्तीर्ण और सभी प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित उस सभामें अनुपम एवं उत्तम आसनपर धर्मराज विद्यमान रहते हैं ॥ ३१॥
वे सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ हैं और उनके मस्तकपर छत्र सुशोभित है तथा कानोंमें कुण्डलोंसे अलंकृत वे श्रीमान् महामुकुटसे सुशोभित हैं। वे सभी प्रकारके अलंकारोंसे समन्वित तथा नीलमेघके समान कान्तिवाले हैं। हाथमें चँवर धारण की हुई अप्सराएँ उन्हें पंखा झलती रहती हैं ॥ ३२-३३॥
गन्धर्वोके समूह तथा अप्सरागणोंका संघ गायन, वादन और नृत्यादिद्वारा सभी ओरसे उनकी सेवा करते हैं ॥ ३४॥
हाथमें पाश लिये हुए मृत्यु और बलवान् काल तथा विचित्र आकृतिवाले चित्रगुप्त एवं कृतान्तके द्वारा वे सेवित हैं॥३५॥
च हाथों में पाश और दण्ड धारण करनेवाले, उग्र स्वभाववाले, आज्ञाके अधीन आचरण करनेवाले तथा अपने समान बलवाले नाना सुभटों (दूतों)-से (वे धर्मराज) घिरे रहते हैं ॥ ३६॥
हे खग! अग्निष्वात्त, सोमप, उष्मप, स्वधावान् , बर्हिषद्, मूर्तिमान् तथा अमूर्तिमान् जो पितर हैं एवं अर्यमा आदि जो पितृगण हैं और जो अन्य मूर्तिमान् पितर हैं वे सब मुनियोंके साथ धर्मराजकी उपासना करते हैं ॥ ३७-३८॥
अत्रि, वसिष्ठ, पुलह, दक्ष, क्रतु, अंगिरा, जमदग्निनन्दन परशुराम, भृगु, पुलस्त्य, अगस्त्य, नारद-ये तथा अन्य बहुत-से पितृराज (धर्मराज)-के सभासद हैं, जिनके नामों और कर्मोंकी गणना नहीं की जा सकती॥३९-४० ॥
ये धर्मशास्त्रोंकी व्याख्या करके यथावत् निर्णय देते हैं, ब्रह्माकी आज्ञाके अनुसार वे सब धर्मराजकी सेवा करते हैं ॥४१॥ उस सभामें सूर्यवंशके और चन्द्रवंशके अन्य बहुत-से धर्मात्मा राजा धर्मराजकी सेवा करते हैं ॥ ४२ ॥
मनु, दिलीप, मान्धाता, सगर, भगीरथ, अम्बरीष, अनरण्य, मुचुकुन्द, निमि, पृथु, ययाति, नहुष, पूरु, दुष्यन्त, शिवि, नल, भरत, शन्तनु, पाण्डु तथा सहस्रार्जुन-ये यशस्वी पुण्यात्मा राजर्षि और बहुत-से प्रख्यात राजा बहुत-से अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करनेके फलस्वरूप धर्मराजके सभासद हुए हैं॥४३-४५ ॥
धर्मराजकी सभामें धर्मकी ही प्रवृत्ति होती है। न वहाँ पक्षपात है, न झूठ बोला जाता है और न किसीका किसीके प्रति मात्सर्यभाव रहता है। सभी सभासद शास्त्रविद् और सभी धर्मपरायण हैं। वे सदा उस सभामें वैवस्वत यमकी उपासना करते हैं ॥ ४६-४७॥
हे तार्क्ष्य! महात्मा धर्मराजकी वह सभा इस प्रकारकी है। जो पापात्मा पुरुष दक्षिण द्वारसे (वहाँ) जाते हैं, वे उस सभाको नहीं देख पाते। धर्मराजके पुरमें जानेके लिये चार मार्ग हैं। पापियोंके गमनके लिये जो मार्ग है उसके विषयमें मैंने तुमसे पहले ही कह दिया॥४८-४९ ॥
पूर्व आदि तीनों मार्गोंसे जो धर्मराजके मन्दिरमें जाते हैं, वे सुकृती (पुण्यात्मा होते) हैं और अपने पुण्यकर्मोंके बलसे वहाँ जाते हैं, उनके विषयमें सुनो ॥ ५० ॥
उन मार्गों में जो पहला पूर्व-मार्ग है वह सभी प्रकारकी सामग्रियोंसे समन्वित है और पारिजात वृक्षकी छायासे आच्छादित तथा रत्नमण्डित है॥५१॥
वह मार्ग विमानोंके समूहोंसे संकीर्ण और हंसोंकी पंक्तिसे सुशोभित है, विद्रुमके उद्यानोंसे व्याप्त है और अमृतमय जलसे युक्त है॥५२॥
उस मार्गसे पुण्यात्मा ब्रह्मर्षि और अमलान्तरात्मा राजर्षि, अप्सरागण, गन्धर्व, विद्याधर, वासुकि आदि महान् नाग जाते हैं ॥५३॥
अन्य बहुत-से देवताओंकी आराधना करनेवाले शिवभक्तिनिष्ठ, ग्रीष्म ऋतुमें प्रपा (प्याऊ)-का दान करनेवाले (अर्थात् पौशाला लगानेवाले), माघमें (आग सेंकनेके लिये) लकड़ी देनेवाले, वर्षा-ऋतुमें (चातुर्मास करनेवाले) विरक्त संतोंको दान-मानादि प्रदान करके उन्हें विश्राम करानेवाले, दुःखी मनुष्यको अमृतमय वचनोंसे आश्वस्त करनेवाले और आश्रय देनेवाले ॥५४-५५ ॥
सत्य और धर्ममें रहनेवाले, क्रोध और लोभसे रहित, पिता-मातामें भक्ति रखनेवाले, गुरुकी शुश्रूषामें लगे रहनेवाले, भूमिदान देनेवाले, गृहदान देनेवाले, गोदान देनेवाले, विद्या प्रदान करनेवाले, पुराणके वक्ता, श्रोता और पुराणोंका पारायण करनेवाले–ये सभी तथा अन्य पुण्यात्मा भी पूर्वद्वारसे धर्मराजके नगरमें प्रवेश करते हैं। वे सभी सुशील और शुद्ध बुद्धिवाले धर्मराजकी सभामें जाते हैं ॥ ५६–५८॥
(धर्मराजके नगरमें जानेके लिये) दूसरा उत्तरमार्ग है, जो सैकड़ों विशाल रथोंसे तथा शिविका आदि नरयानोंसे परिपूर्ण है। वह हरिचन्दनके वृक्षोंसे सुशोभित है॥५९॥
उस मार्गमें हंस और सारससे व्याप्त, चक्रवाकसे सुशोभित तथा अमृततुल्य जलसे परिपूर्ण एक मनोरम सरोवर है॥६०॥
इस मार्गसे वैदिक, अभ्यागतोंकी पूजा करनेवाले, दुर्गा और सूर्यके भक्त, पर्वोपर तीर्थस्नान करनेवाले, धर्मसंग्राममें अथवा अनशन करके मृत्यु प्राप्त करनेवाले, वाराणसीमें, गोशालामें अथवा तीर्थ-जलमें विधिवत् प्राण त्याग करनेवाले ॥६१-६२ ॥
ब्राह्मणों अथवा अपने स्वामीके कार्यसे तथा तीर्थक्षेत्रमें मरनेवाले और जो देव-प्रतिमा आदिके विध्वंस होनेसे बचानेके प्रयासमें प्राणत्याग करनेवाले हैं, योगाभ्याससे प्राण त्यागनेवाले हैं, सत्पात्रोंकी पूजा करनेवाले हैं तथा नित्य महादान देनेवाले हैं, वे व्यक्ति उत्तरद्वारसे धर्मसभामें जाते हैं ॥ ६३-६४॥
तृतीयः पश्चिमो मार्गो रत्नमन्दिरमण्डितः। सुधारससदापूर्णदीर्घिकाभिर्विराजितः ॥६५॥ ऐरावतकुलोद्भूतमत्तमातङ्गसंकुलः । उच्चैःश्रवसमुत्पन्नहयरत्नसमन्वितः ॥६६॥ एतेनात्मपरा यान्ति सच्छास्त्रपरिचिन्तकाः। अनन्यविष्णुभक्ताश्च गायत्रीमन्त्रजापकाः॥६७॥ परहिंसापरद्रव्यपरवादपराङ्मुखाः । स्वदारनिरताः सन्तः साग्निका वेदपाठकाः॥६८॥
तीसरा पश्चिमका मार्ग है, जो रत्नजटित भवनोंसे सुशोभित है, वह अमृतसरसे सदा परिपूर्ण रहनेवाली बावलियोंसे विराजित है। वह मार्ग ऐरावत-कुलमें उत्पन्न मदोन्मत्त हाथियोंसे तथा उच्चैःश्रवासे उत्पन्न अश्वरत्नोंसे भरा है। ६५-६६ ॥
इस मार्गसे आत्मतत्त्ववेत्ता, सत्-शास्त्रोंके परिचिन्तक, भगवान् विष्णुके अनन्य | भक्त, गायत्री मन्त्रका जप करनेवाले, दूसरोंकी हिंसा, दूसरोंके द्रव्य एवं दूसरोंकी निन्दासे पराङ्मुख रहनेवाले, अपनी पत्नीमें संतुष्ट रहनेवाले, संत, अग्निहोत्री, वेदपाठी ब्राह्मण गमन करते हैं ॥६७-६८ ॥
ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले, वानप्रस्थ आश्रमके नियमोंका पालन करनेवाले, तपस्वी, संन्यास-धर्मका | पालन करनेवाले तथा श्रीचरण-संन्यासी एवं मिट्टीके ढेले, पत्थर और स्वर्णको समान समझनेवाले, ज्ञान एवं वैराग्यसे सम्पन्न, सभी प्राणियोंके हित-साधनमें निरत, शिव और विष्णुका व्रत करनेवाले, सभी कर्मोंको ब्रह्मको | समर्पित करनेवाले, देव-ऋण, पितृ-ऋण एवं ऋषि-ऋण-इन तीनों ऋणोंसे विमुक्त, सदा पंचयज्ञ में निरत रहनेवाले, पितरोंको श्राद्ध देनेवाले, समयसे संध्योपासन करनेवाले, नीचकी संगतिसे अलग रहनेवाले, सत्पुरुषोंकी संगतिमें निष्ठा रखनेवाले–ये सभी जीव अप्सराओंके समूहोंसे युक्त श्रेष्ठ विमानमें बैठकर अमृतपान करते हुए धर्मराजके भवनमें जाते हैं और वे उस भवनके पश्चिम द्वारसे प्रविष्ट होकर धर्मसभामें पहुँचते हैं ॥६९-७३ ॥
उन्हें आया हुआ देखकर धर्मराज बार-बार स्वागत-सम्भाषण करते हैं, उन्हें उठकर अभ्युत्थान देते हैं और उनके सम्मुख जाते हैं ॥ ७४ ॥
उस समय धर्मराज (भगवान् विष्णुके समान) चतुर्भुजरूप और शंख-चक्र-गदा तथा खड्ग धारण करके पुण्य करनेवाले जीवोंके साथ स्नेहपूर्वक मित्रवत् आचरण करते हैं। उन्हें (बैठनेके लिये) सिंहासन देते हैं, नमस्कार करते हैं और पाद्य, अर्घ्य आदि प्रदान करके चन्दनादिक पूजा-सामग्रियोंसे उनकी पूजा करते हैं। ७५-७६ ॥
(यम [धर्मराज] कहते हैं-) हे सभासदो! इस ज्ञानीको परम आदरपूर्वक नमस्कार कीजिये, यह हमारे मण्डलका भेदन करके ब्रह्मलोकमें जायगा। हे बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ और नरककी यातनासे भयभीत रहनेवाले पुण्यात्माओ! आप लोगोंने अपने पुण्य-कर्मानुष्ठानसे सुख प्रदान करनेवाला देवत्व प्राप्त कर लिया है। दुर्लभ मनुष्ययोनि प्राप्त करके जो नित्य वस्तु-धर्मका साधन नहीं करता, वह घोर नरकमें गिरता है, उससे बढ़कर अचेतन–अज्ञानी और कौन है ? अस्थिर शरीरसे और अस्थिर धन आदिसे कोई एक बुद्धिमान् मनुष्य ही स्थिर धर्मका संचयन करता है। इसलिये सभी प्रकारके प्रयत्नोंको करके धर्मका संचय करना चाहिये। आप लोग सभी भोगोंसे परिपूर्ण पुण्यात्माओंके स्थान स्वर्गमें जायँ- ॥७७-८१ ॥
ऐसा धर्मराजका वचन सुनकर उन्हें और उनकी सभाको प्रणाम करके वे देवताओंके द्वारा पूजित और | मुनीश्वरोंद्वारा स्तुत होकर विमानसमूहोंसे परम पदको जाते हैं और कुछ परम आदरके साथ धर्मराजकी सभा ही रह जाते हैं ॥ ८२-८३॥
और वहाँ एक कल्पपर्यन्त रहकर मनुष्यों के लिये दुर्लभ भोगोंका उपभोग करके | (पुण्यात्मा पुरुष) शेष पुण्योंके अनुसार पुण्य-दर्शनवाले मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है ॥ ८४॥
इस लोकमें वह महान् धनसम्पन्न, सर्वज्ञ तथा सभी शास्त्रोंमें पारंगत होता है और पुनः आत्मचिन्तनके द्वारा परम गतिको प्राप्त करता है ॥ ८५ ॥
(हे गरुड!) तुमने यमलोकके विषयमें पूछा था, वह सब मैंने बता दिया, इसको भक्तिपूर्वक | सुननेवाला व्यक्ति भी धर्मराजकी सभामें जाता है॥ ८६ ॥
॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ‘धर्मराजनगरनिरूपण’ नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥