तेरहवाँ अध्याय

अशौचकालका निर्णय, अशौचमें निषिद्ध कर्म, सपिण्डीकरणश्राद्ध, पिण्डमेलनकी प्रक्रिया, शय्यादान, पददान तथा गयाश्राद्धकी महिमा

गरुडजीने कहा-हे प्रभो! सपिण्डनकी विधि, सूतकका निर्णय और शय्यादान तथा पददानकी सामग्री एवं उनकी महिमाके विषयमें कहिये ॥१॥

श्रीभगवान्ने कहा-हे तार्थ्य! सपिण्डीकरण आदि सम्पूर्ण क्रियाओंके विषयमें बतलाता हूँ, जिसके द्वारा मृत प्राणी प्रेत नामको छोड़कर पितृगणमें प्रवेश करता है, उसे सुनो॥ २॥

जिनका पिण्ड रुद्रस्वरूप पितामह आदिके पिण्डोंमें नहीं मिला दिया जाता, उनको पुत्रोंके द्वारा दिये गये अनेक प्रकारके दान प्राप्त नहीं होते॥३॥

उनका पुत्र भी सदा अशुद्ध रहता है कभी शुद्ध नहीं होता; क्योंकि सपिण्डीकरणके बिना सूतककी निवृत्ति (समाप्ति) नहीं होती॥४॥

इसलिये पुत्रके द्वारा सूतकके अन्तमें सपिण्डन किया जाना चाहिये। मैं सभीके लिये सूतकान्त (सूतक-समाप्ति)-का यथोचित काल कहूँगा॥५॥

ब्राह्मण दस दिनमें, क्षत्रिय बारह दिनमें, वैश्य पंद्रह दिन और शूद्र एक मासमें शुद्ध होता है॥६॥

प्रेतसम्बन्धी सूतक (मृताशौच)-में सपिण्डी दस दिनमें शुद्ध होते हैं। सकुल्या (कुलके लोग) तीन रातमें शुद्ध होते हैं और गोत्रज स्नानमात्रसे शुद्ध हो जाते हैं ॥७॥

चौथी पीढ़ीतकके बान्धव दस रातमें, पाँचवीं पीढ़ीके लोग छः रातमें, छठी पीढ़ीके चार दिनमें और सातवीं पीढ़ीके तीन दिनमें, आठवीं पीढ़ीके एक दिनमें, नवीं पीढ़ीके दो प्रहरमें तथा दसवीं पीढ़ीके लोग स्नानमात्रसे

देशान्तरमें गया हुआ कोई व्यक्ति अपने कुलके जननाशौच या मरणाशौचके विषयका समाचार दस दिनके अंदर सुनता है तो दस रात्रि बीतने में जितना समय शेष रहता है, उतने समयके लिये उसे अशौच होता है॥१०॥

दस दिन बीत जानेके बाद (और एक वर्षके पहलेतक ऐसा समाचार मिलनेपर) तीन राततक अशौच रहता है। संवत्सर (एक वर्ष) बीत जानेपर (समाचार मिले) तो स्नानमात्रसे शुद्धि हो जाती है॥११॥

मरणाशौचके आदिके दो भागोंके बीतनेके पूर्व (अर्थात् छः दिनतक) यदि कोई दूसरा अशौच आ पड़े तो आद्य अशौचकी निवृत्तिके साथ ही दूसरे अशौचकी भी निवृत्ति (शुद्धि) हो जाती है॥ १२॥

(किसी बालककी) दाँत निकलनेतक (दाँत निकलनेसे पूर्व) मृत्यु होनेपर सद्यः (अर्थात् उसके अन्तिम संस्कारके बाद स्नान करनेपर), चूडाकरण (मुण्डन)-के हो जानेपर एक रात, व्रतबन्ध होनेपर तीन रात और व्रतबन्धके पश्चात् मृत्यु होनेपर दस रातका अशौच होता है॥ १३॥

जब किसी भी वर्णकी कन्याकी मृत्यु जन्मसे लेकर सत्ताईस मासकी अवस्थातक हो जाय तो सभी वर्गों में समानरूपसे सद्यः अशौचकी निवृत्ति हो जाती है॥ १४ ॥

इसके बाद वाग्दानपर्यन्त एक दिनका और इसके बाद अथवा बिना वाग्दानके भी सयानी कन्याओंकी मृत्यु होनेपर तीन रात्रिका अशौच होता है, यह निश्चित है। वाग्दानके अनन्तर कन्याकी मृत्यु होनेपर पितृकुल और वरकुल दोनोंको तीन दिनका तथा कन्यादान हो जानेपर केवल पतिके ही कुलमें अशौच होता है॥ १५-१६ ॥

छ: मासके अंदर गर्भस्राव हो जानेपर जितने माहका गर्भ होता है, उतने ही दिनोंमें शुद्धि होती है॥ १७ ॥

इसके बाद अर्थात् छः माहके बाद गर्भस्राव हो तो उस स्त्रीको अपनी जातिके अनुरूप अशौच होता है। गर्भपात होनेपर सपिण्डकी सद्यः (स्नानोत्तर) शुद्धि हो जाती है॥ १८॥

कलियुगमें जननाशौच और मरणाशौचसे सभी वर्गों की दस दिनमें शुद्धि हो जाती है, ऐसा शास्त्रका निर्णय है ॥ १९॥

मरणाशौचमें आशीर्वाद, देवपूजा, प्रत्युत्थान (आगन्तुकके स्वागतार्थ उठना), अभिवादन, पलंगपर शयन अथवा किसी अन्यका स्पर्श नहीं करना चाहिये ॥२०॥

(इसी प्रकार) मरणाशौचमें संध्या’, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण, ब्राह्मणभोजन एवं व्रत नहीं करना चाहिये॥ २१॥

जो व्यक्ति सूतकमें नित्य-नैमित्तिक अथवा काम्य कर्म करता है, उसके द्वारा पहले किये गये नित्य-नैमित्तिक आदि कर्म विनष्ट हो जाते हैं ॥ २२॥

व्रती (ब्रह्मचारी), मन्त्रपूत, अग्निहोत्री ब्राह्मण, ब्रह्मनिष्ठ, यती और राजा-इन्हें सूतक नहीं लगता ॥ २३ ॥

विवाह, उत्सव अथवा यज्ञमें मरणाशौच हो जानेपर उस अशौचकी प्रवृत्तिके पूर्व बनाया हुआ अन्न भोजन करनेयोग्य होता है-ऐसा मनुने कहा है॥ २४॥

सूतक न जाननेके कारण जो व्यक्ति सूतकवाले घरसे अन्नादि कुछ ग्रहण करता है, वह दोषी नहीं होता, किंतु याचकको देनेवाला दाता दोषका भागी होता है ॥ २५॥

जो सूतकको छिपाकर ब्राह्मणको अन्न देता है, वह दाता तथा सूतकको जानकर भी जो ब्राह्मण सूतकान्नका भोजन करता है, वे दोनों ही दोषी होते हैं ॥ २६ ॥

इसलिये सूतकसे शुद्धि प्राप्त करनेके लिये पिताका सपिण्डन-श्राद्ध करना चाहिये। तभी वह मृतक पितृगणोंके साथ पितृलोकमें जाता है॥ २७॥

तत्त्वदर्शी मुनियोंने बारहवें दिन, तीन पक्षमें, छः मासमें अथवा एक वर्ष पूर्ण होनेपर सपिण्डीकरण कहा है॥२८॥

हे तार्थ्य! मैं तो शास्त्रधर्मके अनुसार चारों वर्गों के लिये बारहवें दिन ही सपिण्डीकरण करनेके लिये कहता हूँ॥ २९ ॥

कलियुगमें धार्मिक भावनाके अनित्य होनेसे, पुरुषोंकी आयु क्षीण होनेसे और शरीरकी अस्थिरताके कारण बारहवें दिन ही सपिण्डीकरण कर लेना प्रशस्त है॥ ३० ॥

गृहस्थके मरनेपर व्रतबन्ध, उत्सव आदि, व्रत, उद्यापन तथा विवाहादि कृत्य नहीं होते ॥ ३१॥

जबतक पिण्डमेलन नहीं होता (अर्थात् पितरोंमें पिण्ड मिला नहीं दिया जाता या सपिण्डीकरण-श्राद्ध नहीं हो जाता) तबतक उसके यहाँसे भिक्षु भिक्षा भी नहीं ग्रहण करता, अतिथि उसके यहाँ सत्कार नहीं ग्रहण करता और नित्य-नैमित्तिक कर्मोंका भी लोप रहता है॥३२॥

कर्मका लोप होनेसे दोषका भागी होना पड़ता है, इसलिये चाहे निरग्निक हो या साग्निक (अग्निहोत्री) बारहवें दिन सपिण्डन कर देना चाहिये ॥ ३३॥

सभी तीर्थों में स्नान आदि करने और सभी यज्ञोंका अनुष्ठान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वही फल बारहवें दिन सपिण्डन करनेसे प्राप्त होता है॥ ३४॥

अतः स्नान करके मृतस्थानमें गोमयसे लेपन करके पुत्रको शास्त्रोक्तविधिसे सपिण्डन-श्राद्ध करना चाहिये॥ ३५ ॥

पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय आदिसे विश्वेदेवोंका पूजन करे और असद्गतिके पितरोंके लिये भूमिमें विकिर देकर हाथ-पाँव धोकर पुनः आचमन करे॥३६॥

तब वसु, रुद्र और आदित्यस्वरूप पिता, पितामह तथा प्रपितामहको क्रमशः एक-एक अर्थात् तीन पिण्ड प्रदान करे और चौथा पिण्ड मृतकको प्रदान करे ॥ ३७॥

चन्दन, तुलसीपत्र, धूप-दीप, सुन्दर भोजन, ताम्बूल, सुन्दर वस्त्र तथा दक्षिणा आदिसे पूजन करे॥ ३८ ॥

तदनन्तर सुवर्णकी शलाकासे प्रेतके पिण्डको तीन भागोंमें विभक्त करके पितामह आदिके पिण्डोंमें पृथक्पृथक् उसका मेलन करे। अर्थात् एक भाग पितामहके पिण्डमें, दूसरा भाग प्रपितामहके पिण्डमें तथा तीसरा भाग वृद्धप्रपितामहके पिण्डमें मिलाये ॥ ३९॥

हे तार्थ्य! मेरा मत है कि माताके पिण्डका मेलन पितामही आदिके पिण्डके साथ और पिताके पिण्डका मेलन पितामह आदिके पिण्डके साथ करके सपिण्डीकरण-श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिये॥४०॥

जिसके पिताकी मृत्यु हो गयी हो और पितामह जीवित हों, उसे प्रपितामहादि पूर्व पुरुषोंको तीन पिण्ड प्रदान करना चाहिये और पितृपिण्डको तीन भागोंमें विभक्त करके (प्रपितामह आदि) उन्हींके साथ मेलन करे। माताकी मृत्यु हो जानेपर पितामही जीवित हो तो माताके सपिण्डन-श्राद्धमें भी पितृ-सपिण्डनकी भाँति प्रपितामही आदिमें मातृपिण्डका मेलन करना चाहिये अथवा पितृपिण्डको मेरे पिण्ड (विष्णुजीके)-में और मातृपिण्डको महालक्ष्मीपिण्डमें मिलाये॥ ४१-४३॥

पुत्रहीन स्त्रीका सपिण्डनादि श्राद्ध उसके पतिको करना चाहिये और उसका सपिण्डीकरण उसकी सास आदिके साथ होना चाहिये ॥४४॥

(एक मतानुसार) विधवा स्त्रीका सपिण्डीकरण पति, श्वशुर और वृद्ध श्वशुरके साथ करना चाहिये, हे तार्क्ष्य! यह मेरा मत नहीं है। विधवा स्त्रीका सपिण्डन पतिके साथ होनेयोग्य है॥ ४५ ॥

हे काश्यप! यदि पति और पत्नी एक ही चितापर आरूढ़ हुए हों तो तृणको बीचमें रखकर श्वशुरादिके पिण्डके साथ स्त्रीके पिण्डका मेलन करना चाहिये॥४६॥

एक चितापर (माता-पिताका) दाहसंस्कार किये जानेपर एक ही पुत्र पहले पिताके उद्देश्यसे पिण्डदान करके स्नान करे, तदनन्तर (अपनी) सती माताका पिण्डदान करके पुनः स्नान करे॥४७॥

यदि दस दिनके अन्तर्गत किसी सतीने अग्निप्रवेश किया है तो उसका शय्यादान और सपिण्डन आदि कृत्य उसी दिन करना चाहिये, जिस दिन पतिका किया जाय ॥४८॥

हे गरुड! सपिण्डीकरण करनेके अनन्तर पितरोंका तर्पण करे और इस क्रियामें वेदमन्त्रोंसे समन्वित स्वधाकारका उच्चारण करे ॥४९॥

इसके पश्चात् अतिथिको भोजन कराये और हन्तकार प्रदान करे। ऐसा करनेसे पितर, मुनिगण, देवता तथा दानव तृप्त होते हैं ॥५०॥

भिक्षा एक ग्रासके बराबर होती है, पुष्कल चार ग्रासके बराबर होता है और चार पुष्कलों (सोलह ग्रास)-का एक हन्तकार होता है॥५१॥

सपिण्डीकरणमें ब्राह्मणोंके चरणोंकी पूजा चन्दनअक्षतसे करनी चाहिये और पितरोंकी अक्षयतृप्तिके लिये ब्राह्मणको दान देना चाहिये॥५२॥

वर्षभर जीविकाका निर्वाह करनेयोग्य घृत, अन्न, सुवर्ण, रजत, सुन्दर गौ, अश्व, गज, रथ और भूमिका आचार्यको दान करना चाहिये ॥५३॥

इसके बाद स्वस्तिवाचनपूर्वक मन्त्रोंसे कुंकुम, अक्षत और नैवेद्यादिके द्वारा ग्रहों, देवी और विनायककी पूजा करनी चाहिये ॥ ५४॥

इसके बाद आचार्य मन्त्रोच्चारण करते हुए (यजमानका) अभिषेक करे और हाथमें रक्षासूत्र बाँधकर मन्त्रसे पवित्र अक्षत प्रदान करे॥५५॥

तदनन्तर विविध प्रकारके सुस्वादु मिष्टान्नोंसे ब्राह्मणोंको भोजन कराये और फिर दक्षिणासहित अन्न एवं जलयुक्त बारह घट प्रदान करे ॥५६॥

तदनन्तर ब्राह्मणादिको वर्णक्रमसे (अपनी शुद्धिहेतु) क्रमशः जल, शस्त्र, कोड़े और डण्डेका स्पर्श करना चाहिये अर्थात् ब्राह्मण जलका, क्षत्रिय शस्त्रका, वैश्य कोड़ेका तथा शूद्र डण्डेका स्पर्श करे। ऐसा करनेसे वे शुद्ध हो जाते हैं ॥ ५७॥

इस प्रकार सपिण्डन-श्राद्ध करके क्रिया करते समय पहने गये वस्त्रोंका त्याग कर दे। इसके बाद श्वेतवर्णके वस्त्रको धारण करके शय्यादान करे॥५८॥

इन्द्रसहित सभी देवता शय्यादानकी प्रशंसा करते हैं, अतः मृतकके उद्देश्यसे उसकी मृत्युके बाद अथवा जीवनकालमें भी शय्या प्रदान करनी चाहिये॥ ५९॥

शय्या सुदृढ़ काष्ठकी सुन्दर एवं विचित्र चित्रोंसे चित्रित, दृढ़, रेशमी सूत्रोंसे बिनी हुई तथा स्वर्णपत्रोंसे अलंकृत हो॥६० ॥

श्वेत रूईके गद्दे, सुन्दर तकिये तथा चादरसे युक्त हो एवं पुष्प, गन्ध आदि द्रव्योंसे सुवासित हो॥६१ ॥

वह सुन्दर बन्धनोंसे भलीभाँति बँधी हुई हो और पर्याप्त विशाल हो तथा सुख प्रदान करनेवाली हो-ऐसी शय्याको बनाकर आस्तरणयुक्त (कुश या दरीचादरयुक्त) भूमिपर रखे ॥६२॥

उस शय्याके चारों ओर छाता, चाँदीका दीपालय, चँवर, आसन और पात्र, भंगार (झारी या कलश), करक (गडुआ), दर्पण, पाँच रंगोंवाला चंदवा तथा शयनोपयोगी और सभी सामग्रियोंको यथास्थान स्थापित करे ॥६३-६४॥

उस शय्याके ऊपर सभी प्रकारके आभूषण, आयुध तथा वस्त्रसे युक्त स्वर्णकी श्रीलक्ष्मी-नारायणकी मूर्ति स्थापित करे ॥ ६५ ॥

सौभाग्यवती स्त्रीके लिये दी जानेवाली शय्याके साथ पूर्वोक्त वस्तुओंके अतिरिक्त कज्जल, महावर, कुंकुम, स्त्रियोचित वस्त्र, आभूषण तथा सौभाग्य-द्रव्य आदि सब कुछ प्रदान करे॥६६॥

तदनन्तर सपत्नीक ब्राह्मणको गन्ध-पुष्पादिसे अलंकृत करके ब्राह्मणीको कर्णाभरण, अंगुलीयक (अँगूठी) और सोनेके कण्ठसूत्रसे विभूषित करे॥६७॥

उसके बाद ब्राह्मणको साफा, दुपट्टा और कुर्ता पहनाकर श्रीलक्ष्मी-नारायण (मूर्ति)-के आगे सुखशय्यापर बैठाये॥ ६८॥

कुंकुम और पुष्पमाला आदिसे श्रीलक्ष्मी-नारायणकी भलीभाँति पूजा करे। तदनन्तर लोकपाल, नवग्रह, देवी और विनायककी पूजा करे॥६९॥

उत्तराभिमुख होकर अंजलिमें पुष्प लेकर ब्राह्मणके सामने स्थित होकर इस मन्त्रका उच्चारण करे- ॥७०॥

हे कृष्ण! जैसे क्षीरसागरमें आपकी शय्या है, वैसे ही जन्म-जन्मान्तरमें भी मेरी शय्या सूनी न हो॥७१ ॥

इस प्रकार प्रार्थना करके विप्र और श्रीलक्ष्मी-नारायणको पुष्पांजलि चढ़ाकर संकल्पपूर्वक उपस्कर (सभी सामग्रियों)- के साथ व्रतोपदेशक, ब्रह्मवादी गुरुको शय्याका दान दे और कहे-‘हे ब्राह्मण ! इस शय्याको ग्रहण करो’–ब्राह्मण ‘कोऽदात्०’* यह मन्त्र कहते हुए ग्रहण करे॥७२-७३ ॥

इसके बाद शय्यापर स्थित ब्राह्मणको, लक्ष्मी और नारायणकी प्रतिमाको हिलाये, तदनन्तर प्रदक्षिणा और प्रणाम करके उन्हें विसर्जित करे॥७४ ॥

यदि पर्याप्त विभव (धन-सम्पत्ति) हो तो शय्यामें सुखपूर्वक शयन करनेके लिये सभी प्रकारके उपकरणोंसे युक्त अत्यन्त सुन्दर गृहदान (घरका दान) भी करे ॥७५ ॥

जो जीवितावस्थामें अपने हाथसे शय्यादान करता है, वह जीते हुए ही पर्वकालमें वृषोत्सर्ग भी करे॥७६॥

एक शय्या एक ही ब्राह्मणको देनी चाहिये। बहुत ब्राह्मणोंको एक शय्या कदापि नहीं देनी चाहिये। यदि वह शय्या विभक्त अथवा विक्रय करनेके लिये दी जाती है तो वह दाताके अध:पतनका कारण बनती है॥७७॥

सत्पात्रमें शय्यादान करनेसे वांछित फलकी प्राप्ति होती है और पिता तथा दान देनेवाला पुत्र-दोनों इस लोक और परलोकमें मुदित (सुखी) होते हैं ॥ ७८ ॥

शय्यादानके प्रतापसे दाता दिव्य इन्द्रलोकमें अथवा सूर्यपुत्र यमके लोकमें पहुँचता है, इसमें संशय नहीं ॥ ७९ ॥

श्रेष्ठ विमानपर आरूढ होकर अप्सरागणोंसे सेवित दाता प्रलयपर्यन्त आतंकरहित होकर स्वर्गमें स्थित रहता है॥ ८० ॥

सभी तीर्थोंमें तथा सभी पर्वदिनोंमें जो भी पुण्यकार्य किये जाते हैं, उन सभीसे अधिक पुण्य शय्यादानके द्वारा प्राप्त होता है॥ ८१॥

इस प्रकार पुत्रको शय्यादान करके पददान देना चाहिये। पददानके विषयमें मैं तुम्हें यथावत् बतलाता हूँ, सुनो ॥ ८२॥

छत्र (छाता), उपानह (जूता), वस्त्र, मुद्रिका (अँगूठी), कमण्डलु, आसन तथा पंचपात्र-ये सात वस्तुएँ पद कही गयी हैं ॥८३ ॥

दण्ड, ताम्रपात्र, आमान्न (कच्चा अन्न), भोजन, अर्घ्यपात्र और यज्ञोपवीतको मिलाकर पदकी सम्पूर्णता होती है॥ ८४॥

इस प्रकार शक्तिके अनुसार तेरह पददानोंकी व्यवस्था करके बारहवें दिन तेरह ब्राह्मणोंको पददान करना चाहिये ॥ ८५॥

इस पददानसे धार्मिक पुरुष सद्गतिको प्राप्त होते हैं। यममार्गमें गये हुए जीवोंके लिये पददान सुख प्रदान करनेवाला होता है॥८६॥

वहाँ यममार्गमें अत्यन्त प्रचण्ड आतप (घाम) होता है, जिससे मनुष्य जलता है। छत्र (छाता) दान करनेसे उसके सिरपर सुन्दर छाया हो जाती है॥ ८७ ॥

जो जूतादान करते हैं, वे अत्यन्त कण्टकाकीर्ण यमलोकके मार्गमें अश्वपर चढ़कर जाते हैं ॥ ८८॥

हे खेचर! वहाँ (यममार्गमें) शीत, गरमी और वायुसे अत्यन्त घोर कष्ट मिलता है। वस्त्रदानके प्रभावसे जीव सुखपूर्वक उस मार्गको तय कर लेता है॥ ८९॥

यमके मार्गमें महाभयंकर और विकराल तथा काले और पीले वर्णके यमदूत मुद्रिका प्रदान करनेसे जीवको पीड़ा नहीं देते हैं ॥९० ॥

कमण्डलुका दान करनेसे अत्यन्त धूपसे परिपूर्ण, वायुरहित और जलविहीन यममार्गमें जानेवाला वह प्यासा जीव प्यास लगनेपर जल पीता है॥९१॥

मृत व्यक्तिके उद्देश्यसे जो ताम्रका जलपात्र देता है, उसे एक हजार प्रपादानका फल अवश्य ही प्राप्त होता है ॥ ९२ ॥

ब्राह्मणको सम्यक्-रूपसे आसन और भोजन देनेपर यममार्गमें चलता हुआ जीव धीरे-धीरे सुखपूर्वक पाथेय (भोज्य पदार्थ)-का उपभोग करता है॥९३ ॥

इस प्रकार सपिण्डनके दिन विधानपूर्वक दान दे करके बहुत-से ब्राह्मणोंको तथा चाण्डाल आदिको भी भोजन देना चाहिये ॥ ९४॥

इसके बाद वर्षके पूर्व ही (बारहवें दिन) सपिण्डन करनेपर भी प्रत्येक मास जलकुम्भ और पिण्डदान करना चाहिये॥९५ ॥

हे खग! प्रेतकार्यको छोड़कर अन्य किसी कर्मका पुनः अनुष्ठान नहीं किया जाता, किंतु प्रेतकी अक्षयतृप्तिके लिये पुनः-पुनः पिण्डदानादि करना चाहिये ॥९६॥

अतः मैं विशेष तिथिपर मृत्यु होनेवाले जीवके मासिक, वार्षिक और पाक्षिक श्राद्धके विषयमें कुछ विशेष बात कहूँगा॥ ९७ ॥

पूर्णमासी तिथिपर जो मरता है, उसका ऊनमासिक श्राद्ध चतुर्थी तिथिको होता है और जिसकी मृत्यु चतुर्थीको हुई है, उसका ऊनमासिक श्राद्ध नवमी तिथिको होता है॥९८॥

नवमी तिथिको जिसकी मृत्यु हुई है, उसका ऊनमासिक श्राद्ध रिक्ता तिथि-चतुर्दशीको होता है। इस प्रकार पाक्षिक श्राद्ध बीसवें दिन करना चाहिये ॥९९ ॥

यदि एक ही मासमें दो संक्रान्तियाँ हों तो दो महीनोंका श्राद्ध मलमासमें ही करना चाहिये ॥ १०० ॥

यदि एक ही मासमें दो मास हों तो उस मासके ही वे दोनों पक्ष और वे ही तीस तिथियाँ उन दोनों महीनोंकी मानी जायँगी॥१०१॥

तिथ्यर्धे प्रथमे पूर्वो द्वितीयाऽर्धे तदुत्तरः। मासाविति बुधैश्चिन्त्यौ मलमासस्य मध्यगौ॥१०२॥ असंक्रान्ते च कर्तव्यं सपिण्डीकरणं खग । तथैव मासिकं श्राद्धं वार्षिकं प्रथमं तथा॥१०३॥ संवत्सरस्य मध्ये तु यदि स्यादधिमासिकः। तदा त्रयोदशे मासि क्रिया प्रेतस्य वार्षिकी॥१०४॥

मलमासमें पड़नेवाले उन दोनों मासोंके (मासिक श्राद्धके) विषयमें विद्वानोंको यह व्यवस्था सोचनी चाहिये कि श्राद्ध-तिथिके दिनके पूर्वार्द्ध में प्रथम मासका श्राद्ध करे और द्वितीयार्द्ध में (दोपहरके बाद) दूसरे मासका श्राद्ध करे ॥ १०२॥

हे खग! संक्रान्तिरहित मास (मलमास)-में भी सपिण्डीकरण तथा मासिक और प्रथम वार्षिक श्राद्ध करना चाहिये॥१०३॥

यदि वर्ष पूर्ण होनेके मध्यमें अधिमास आता है तो तेरह महीने पूर्ण होनेके अनन्तर प्रेतका वार्षिक श्राद्ध करना चाहिये॥१०४॥

संक्रान्तिरहित मासमें पिण्डरहित श्राद्ध (आमश्राद्ध) और संक्रान्तियुक्त मासमें पिण्डयुक्त श्राद्ध करना – चाहिये। इस प्रकार (प्रथम) वार्षिक श्राद्धको (मलमास तथा उसके बाद आनेवाले शुद्ध मास-तेरहवें मास) दोनों ही मासोंमें करना चाहिये॥ १०५ ॥

इस प्रकार वर्ष पूर्ण होनेपर वार्षिक श्राद्ध करना चाहिये और वार्षिक श्राद्धकी तिथिको विशेषरूपसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये ॥ १०६॥

एक वर्ष पूर्ण हो जानेपर श्राद्ध में हमेशा तीन पिण्डदान करना चाहिये। एकोद्दिष्ट श्राद्ध नहीं करना चाहिये। | ऐसा करनेवाला पितृघातक होता है॥ १०७॥

तीर्थश्राद्ध, गयाश्राद्ध तथा गजच्छाया*योगमें, युगादि तिथियों तथा ग्रहणमें किया जानेवाला पितृश्राद्ध वर्षके अंदर नहीं करना चाहिये॥१०८॥

हे खगेश्वर! पितृभक्तिसे प्रेरित हो करके पुत्रको एक वर्षके अनन्तर ही गयाश्राद्ध करना चाहिये ॥ १०९॥

गयाश्राद्ध करनेसे पितर भवसागरसे मुक्त | हो जाते हैं और भगवान् गदाधरकी कृपासे वे परम गतिको प्राप्त होते हैं ॥ ११० ॥

(गयाके विष्णुपद तीर्थमें) तुलसीकी मंजरीसे भगवान् विष्णुकी पादुकाका पूजन करना चाहिये और उसके आलवाल आदि तीर्थों में यथाक्रम पिण्डदान करना चाहिये ॥ १११॥

जो व्यक्ति गयाशिरमें शमीके पत्तेके समान प्रमाणवाले पिण्डको देता है, वह सातों गोत्रोंके (अपने) एकसौ-एक पुरुषोंका उद्धार करता है॥ ११२॥

कुलको आनन्दित करनेवाला जो पुत्र गयामें जाकर श्राद्ध करता है, पितरोंको तुष्टि देनेके कारण उसका जन्म सफल हो जाता है॥ ११३॥

हे खगेश्वर! यह सुना जाता है कि देव-पितरोंने मनुके पुत्र इक्ष्वाकुको कलापवनमें यह गाथा सुनायी थी- ॥ ११४॥

क्या हमारे कुलमें ऐसे कोई | सन्मार्गगामी पुत्र होंगे, जो गयामें जाकर आदरपूर्वक हमलोगोंको पिण्ड प्रदान करेंगे? ॥ ११५ ॥

हे तार्क्ष्य! इस प्रकार जो पुत्र पितरोंकी आमुष्मिक (परलोक-सम्बन्धी) क्रिया करता है, वह सुखी होकर कौशिकके (द्विजके सात) पुत्रोंकी भाँति मुक्त हो जाता है* ॥ ११६॥

हे तार्क्ष्य! भरद्वाजके सात पुत्र (पितृश्राद्धके हेतु) गोवध करके भी सात जन्मपरम्पराओंको भोग करके पितरोंके प्रसादसे मुक्त हो गये॥ ११७॥

(कौशिकके वे सातों पुत्र प्रथम जन्ममें) दशार्ण देशमें सात व्याधोंके रूपमें उत्पन्न हुए थे। इसके बाद अगले जन्ममें वे कालंजर पर्वतपर मृगके रूपमें उत्पन्न हुए। फिर शरद्वीपमें चक्रवाकके रूपमें उनकी उत्पत्ति हुई, अगले जन्ममें मानसरोवरमें हंसके रूपमें उत्पन्न हुए॥ ११८॥

वे ही कुरुक्षेत्रमें वेदपारगामी ब्राह्मणके रूपमें उत्पन्न हुए और पितरोंके प्रति भक्तिभाव रखनेके कारण वे ब्राह्मणपुत्र मुक्त हो गये। इसलिये पूरे प्रयत्नसे मनुष्यको पितृभक्त होना चाहिये। पितृभक्तिके कारण मनुष्य इस लोक तथा परलोकमें भी सुखी होता है ॥ ११९-१२० ॥

हे तात! यह सब और्ध्वदैहिक क्रिया हमने तुमसे कही। यह कृत्य पुत्रकी कामनाको पूर्ण करनेवाला, पुण्यप्रद तथा पिताको मुक्ति प्रदान करनेवाला है॥ १२१॥

जो कोई निर्धन मनुष्य भी इस कथाको सुनता है, वह भी पापसे मुक्त होकर (पितरोंके निमित्त दिये जानेवाले) दानका फल प्राप्त करता है ॥ १२२ ॥

जो मनुष्य मेरे द्वारा कहे गये श्राद्धों एवं दानोंको विधिपूर्वक करता है ओर गरुडपुराणकी कथाको सुनता है, उसके फलको सुनो- ॥ १२३॥

पिता उसको सत्पुत्र प्रदान करता है, पितामह उसे गोधन देते हैं, उसके प्रपितामह उसे बहुविध धन-सम्पत्ति प्रदान करते हैं और वृद्धप्रपितामह (तृप्त होकर) विपुल अन्न आदि प्रदान करते हैं। इस प्रकार श्राद्धसे तृप्त होकर सभी पितर पुत्रको वांछित फल देते हैं और धर्ममार्गसे धर्मराजके प्रासादमें जाकर वे धर्मराजकी सभामें आदरपूर्वक विराजमान रहते हैं ॥ १२४–१२६ ॥

सूतजीने कहा-इस प्रकार श्रीविष्णुजीसे और्ध्वदैहिक श्राद्ध-दानादिविषयक माहात्म्य सुनकर गरुडजीको अपार हर्ष हुआ॥ १२७॥

॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ‘सपिण्डनादि-सर्वकर्मनिरूपण’ नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३॥

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