आठवाँ अध्याय

आतुरकालिक (मरणकालिक ) दान एवं मरणकालमें भगवन्नाम-स्मरणका माहात्म्य, अष्ट महादानोंका फल तथा धर्माचरणकी महिमा

गरुडजीने कहा-हे प्रभो! पुण्यात्माओंकी सारी पारलौकिक क्रियाओंके सम्बन्धमें मुझे बताइये। पुत्रोंको जिस प्रकार वह क्रिया करनी चाहिये, उसे उसी प्रकार कहिये॥१॥

श्रीभगवान्ने कहा-हे तार्थ्य! मनुष्योंके हितकी दृष्टिसे आपने बड़ी उत्तम बात पूछी है। धार्मिक मनुष्यके लिये करनेयोग्य जो कृत्य हैं, वह सब मैं तुम्हें कहता हूँ॥ २॥

पुण्यात्मा व्यक्ति वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर अपने शरीरको व्याधिग्रस्त तथा ग्रहोंकी प्रतिकूलताको देखकर और प्राणवायुके नाद न सुनायी पड़नेपर अपने मरणका समय जानकर निर्भय हो जाय और आलस्यका परित्याग कर जाने-अनजाने किये गये पापोंके विनाशके लिये प्रायश्चित्तका आचरण करे॥३-४॥

जब आतुरकाल उपस्थित हो जाय तो स्नान करके शालग्रामस्वरूप भगवान् विष्णुकी पूजा कराये॥५॥

गन्ध, पुष्प, कुंकुम, तुलसीदल, धूप, दीप तथा बहुत-से मोदक आदि नैवेद्योंको समर्पित करके भगवान्की अर्चा करे॥६॥ और विप्रोंको दक्षिणा देकर नैवेद्यका ही भोजन कराये तथा अष्टाक्षर’ अथवा द्वादशाक्षर-मन्त्रका जप करे॥७॥ १. ॐ नमो नारायणाय। २. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

भगवान् विष्णु और शिवके नामका स्मरण करे और सुने, भगवान्का नाम कानोंसे सुनायी पड़नेपर वह मनुष्यके पापको नष्ट करता है॥८॥ रोगीके समीप आकर बान्धवोंको शोक नहीं करना चाहिये। प्रत्युत मेरे पवित्र नामका बार-बार स्मरण करना चाहिये॥९॥

विद्वान् व्यक्तिको मत्स्य, कूर्म, वराह, नारसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि*-इन दस नामोंका सदा स्मरण-कीर्तन करना चाहिये। जो व्यक्ति रोगीके समीप उपर्युक्त नामोंका कीर्तन करते हैं, वे ही उसके सच्चे बान्धव कहे गये हैं ॥१०-११ ॥

कृष्ण यह मंगलमय नाम जिसकी वाणीसे उच्चरित होता है, उसके करोड़ों महापातक तत्काल भस्म हो जाते हैं ॥ १२ ॥

मरणासन्न अवस्थामें अपने पुत्रके बहानेसे ‘नारायण’ नाम लेकर अजामिल भी भगवद्धामको प्राप्त हो गया तो फिर जो श्रद्धापूर्वक भगवान्के नामका उच्चारण करनेवाले हैं, उनके विषयमें क्या कहना! ॥ १३ ॥

दूषित * ये दस भगवान्के प्रमुख अवतार कहे गये हैं। चित्तवृत्तिवाले व्यक्तिके द्वारा भी स्मरण किये जानेपर भगवान् उसके समस्त पापोंको नष्ट कर देते हैं, जैसे अनिच्छापूर्वक भी स्पर्श करनेपर अग्नि जलाता ही है॥ १४॥

हे द्विज! (वासनाके सहित) पापोंका समूल विनाश करनेकी जितनी शक्ति भगवान्के नाममें है, पातकी मनुष्य उतना पाप करनेमें समर्थ ही नहीं है॥ १५ ॥

यमदेव अपने किंकरोंसे कहते हैं-हे दूतो! हमारे पास नास्तिकजनोंको ले आया करो। भगवान्के नामका स्मरण करनेवाले मनुष्योंको मेरे पास मत लाया करो॥ १६ ॥

(क्योंकि) मैं (स्वयं) अच्युत, केशव, राम, नारायण, कृष्ण, दामोदर, वासुदेव, हरि, श्रीधर, माधव, गोपिकावल्लभ, जानकीनायक रामचन्द्रका भजन करता हूँ॥ १७ ॥

हे दूतो! जो व्यक्ति हे कमलनयन, हे वासुदेव, हे विष्णु, हे धरणिधर, हे अच्युत, हे शंखचक्रपाणि! आप मेरे शरणदाता हों-ऐसा कहते हैं, उन निष्पाप व्यक्तियोंको तुम दूरसे ही छोड़ देना ॥ १८ ॥

(हे दूतो!) जो निष्किंचन और रसज्ञ परमहंसोंके द्वारा निरन्तर आस्वादित भगवान् मुकुन्दके पादारविन्द-मकरन्द-रससे विमुख हैं (अर्थात् भगवद्भक्तिसे विमुख हैं) और नरकके मूल गृहस्थीके प्रपंचमें तृष्णासे बद्ध हैं, ऐसे असत्पुरुषोंको मेरे पास लाया करो॥ १९ ॥

जिनकी जिह्वा भगवान्के गुण और नामका कीर्तन नहीं करती, चित्त भगवान्के चरणारविन्दका स्मरण नहीं करता, सिर एक बार भी भगवान्को प्रणाम नहीं करता, ऐसे विष्णुके (आराधना-उपासना आदि) कृत्योंसे रहित असत्पुरुषोंको (मेरे पास) ले आओ॥ २०॥

इसलिये हे पक्षीन्द्र! जगत्में मंगल-स्वरूप भगवान् विष्णुका कीर्तन ही एकमात्र महान् पापोंके आत्यन्तिक और ऐकान्तिक निवृत्तिका प्रायश्चित्त है-ऐसा जानो॥ २१ ॥

नारायणसे पराङ्मुख रहनेवाले व्यक्तियोंके द्वारा किये गये प्रायश्चित्ताचरण भी दुर्बुद्धि प्राणीको उसी प्रकार पवित्र नहीं कर सकते, जैसे मदिरासे भरे घटको गंगाजी-सदृश नदियाँ पवित्र नहीं कर सकतीं ॥ २२ ॥

भगवान् कृष्णके नामस्मरणसे पाप नष्ट हो जानेके कारण जीव नरकको नहीं देखते और स्वप्नमें भी कभी | यम तथा यमदूतोंको नहीं देखते ॥ २३॥

जो व्यक्ति अन्तकालमें नन्दनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण जिसके पीछे चलते हैं, ऐसी गायको ब्राह्मणोंको दान देता है, वह मांस, हड्डी और रक्तसे परिपूर्ण वैतरणी नदीमें नहीं गिरता अथवा जो मृत्युके समयमें ‘नन्दनन्दन’ इस प्रकारकी वाणी (भगवन्नाम) का उच्चारण करता है, वह पुनः मांस, अस्थि तथा रक्तसे पूर्ण वैतरणीरूपी शरीरको प्राप्त नहीं करता, शरीर धारण नहीं करता अर्थात् मुक्त हो जाता है ॥ २४॥

अतः पापोंके समूहको नष्ट करनेवाले महाविष्णुके नामका स्मरण करना चाहिये अथवा गीता या विष्णुसहस्रनामका पठन अथवा श्रवण करना चाहिये॥ २५॥

एकादशीका व्रत, गीता, गंगाजल, तुलसीदल, भगवान् विष्णुका चरणामृत और नाम-ये मरणकालमें मुक्ति देनेवाले हैं ॥ २६॥

इसके बाद घृत और सुवर्णसहित अन्नदानका संकल्प करे। श्रोत्रिय द्विज (वेदपाठी ब्राह्मण)-को सवत्सा गौका दान करे॥२७॥

हे तार्क्ष्य! जो मनुष्य अन्तकालमें थोड़ा या बहुत दान देता है और पुत्र उसका अनुमोदन करता है, वह दान अक्षय होता है॥२८॥

सत्पुत्रको चाहिये कि अन्तकालमें सभी प्रकारका दान दिलाये, लोकमें धर्मज्ञ पुरुष इसीलिये पुत्रके लिये प्रार्थना करते हैं ॥ २९॥

भूमिपर स्थित, आधी आँख मूंदे हुए पिताको देखकर पुत्रोंको उनके द्वारा पूर्वसंचित धनके विषयमें तृष्णा नहीं करनी चाहिये॥३०॥

सत्पुत्रके द्वारा दिये गये दानसे जबतक उसका पिता जीवित हो तबतक और (फिर मृत्युके अनन्तर) आतिवाहिक शरीरसे भी परलोकके मार्गमें वह दुःख नहीं प्राप्त करता ॥ ३१॥

आतुरकाल और ग्रहणकाल-इन दोनों कालोंमें दिये गये दानका विशेष महत्त्व है, इसलिये तिल आदि अष्ट दान अवश्य देने चाहिये ॥ ३२ ॥

तिल, लोहा, सोना, कपास, नमक, सप्तधान्य*, भूमि और गौ-इनमेंसे एक-एकका दान भी पवित्र करनेवाला है॥३३॥

यह अष्ट महादान महापातकोंका नाश करनेवाला है। अतः अन्तकालमें इसे देना चाहिये। इन दानोंका जो उत्तम फल है उसे सुनो- ॥३४॥

तीनों प्रकारके पवित्र तिल मेरे पसीनेसे उत्पन्न हुए हैं। असुर, दानव और दैत्य तिलदानसे तृप्त होते हैं ॥ ३५ ॥

श्वेत, कृष्ण तथा कपिल (भूरे) वर्णके तिलका दान वाणी, मन और शरीरके द्वारा किये गये त्रिविध पापोंको नष्ट कर देता है॥३६॥

लोहेका दान भूमिमें हाथ रखकर देना चाहिये। ऐसा करनेसे वह जीव यमसीमाको नहीं प्राप्त होता और यममार्गमें नहीं जाता ॥ ३७॥

पाप-कर्म करनेवाले व्यक्तियोंका निग्रह करनेके लिये यमके हाथमें कुल्हाड़ी, मूसल, दण्ड, तलवार तथा छुरी-शस्त्रके रूपमें रहते हैं ॥ ३८॥

यमराजके आयुधोंको संतुष्ट करनेके लिये यह (लोहेका) दान कहा गया है। इसलिये यमलोकमें सुख देनेवाले लोहदानको करना चाहिये॥ ३९ ॥

उरण, श्यामसूत्र, शण्डामर्क, उदुम्बर, शेषम्बल नामक (यमके) महादूत लोहदानसे सुख प्रदान करनेवाले होते हैं ॥४०॥

हे तार्क्ष्य! परम गोपनीय और दानोंमें उत्तम दानको सुनो, जिसके देनेसे भूलोक (पृथ्वी), भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और स्वर्गलोकके निवासी (अर्थात् मनुष्य, भूत-प्रेत तथा देवगण) संतुष्ट होते हैं ॥ ४१॥

ब्रह्मा आदि देवता, ऋषिगण तथा धर्मराजके सभासद-स्वर्णदानसे संतुष्ट होकर वर प्रदान करनेवाले होते हैं ॥ ४२ ॥

इसलिये प्रेतके उद्धारके लिये स्वर्णदान करना चाहिये। हे तात! स्वर्णका दान देनेसे जीव यमलोक नहीं जाता, उसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है ॥ ४३ ॥

बहुत कालतक वह जीव सत्यलोकमें निवास करता है, तदनन्तर इस लोकमें रूपवान् , धार्मिक, वाक्पटु, श्रीमान् और अतुल पराक्रमी राजा होता है॥४४॥

कपासका दान देनेसे यमदूतोंसे भय नहीं होता, लवणका दान देनेसे यमसे भय नहीं होता। लोहा, नमक, कपास, तिल और स्वर्णके दानसे यमपुरके निवासी चित्रगुप्त आदि संतुष्ट होते हैं ॥ ४५-४६॥

सप्तधान्य प्रदान करनेसे धर्मराज और यमपुरके तीनों द्वारोंपर रहनेवाले अन्य द्वारपाल भी प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४७ ॥

धान, जौ, गेहूँ , मूंग, उड़द, काकुन या कँगुनी और सातवाँ चना-ये सप्तधान्य कहे गये ॥४८॥

जो व्यक्ति गोचर्ममात्र* भूमि विधानपूर्वक सत्पात्रको देता है, वह ब्रह्महत्याके पापसे मुक्त होकर पवित्र हो जाता है, ऐसा मुनीश्वरोंने देखा है॥४९॥

राज्यमें किया हुआ अर्थात् राज्यसंचालनमें राजासे होनेवाला महापाप न व्रतोंसे, न तीर्थसेवनसे और न अन्य किसी दानसे नष्ट होता है, अपितु वह तो केवल भूमिदानसे ही विलीन होता है॥ ५० ॥

जो व्यक्ति ब्राह्मणको धान्यपूर्ण पृथिवीका दान करता है, वह देवताओं और असुरोंसे पूजित होकर इन्द्रलोकमें जाता है॥५१॥

हे गरुड! अन्य दानोंका फल अत्यल्प होता है, किंतु पृथ्वीदानका पुण्य दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है॥५२॥

भूमिका स्वामी होकर भी जो ब्राह्मणको भूमि नहीं देता, वह (जन्मान्तरमें) किसी ग्राममें एक कुटियातक भी नहीं प्राप्त करता और जन्म-जन्मान्तरमें अर्थात् प्रत्येक जन्ममें दरिद्र होता है॥५३॥

भूमिका स्वामी होनेके अभिमानमें जो भूमिका दान नहीं करता, वह तबतक नरकमें निवास करता है, जबतक शेषनाग पृथ्वीको धारण करते हैं ॥५४॥

इसलिये भूमिके स्वामीको भूमिदान करना ही चाहिये। अन्य व्यक्तियोंके लिये भूमिदानके स्थानपर मैंने गोदानका विधान किया है॥५५॥

इसके बाद अन्तधेनुका दान करना चाहिये और रुद्रधेनु देनी चाहिये। तदनन्तर ऋणधेनु देकर मोक्षधेनुका दान करना चाहिये॥५६॥

हे खग! विशेष विधानपूर्वक वैतरणीधेनुका दान करना चाहिये।* (दानमें दी गयी) गौएँ मनुष्यको त्रिविध (आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक तापों तथा कायिक, वाचिक एवं मानसिक) पापोंसे मुक्त करती हैं ॥ ५७ ॥

बाल्यावस्थामें, कुमारावस्थामें, युवावस्थामें, वृद्धावस्थामें अथवा दूसरे जन्ममें, रातमें, प्रात:काल, मध्याह्न, अपराह्ण और दोनों संध्याकालोंमें शरीर, मन और वाणीसे जो-जो पाप किये गये हैं, वे सभी पाप तपस्या और सदाचारसे युक्त वेदविद् ब्राह्मणको उपस्करयुक्त (दानसामग्रीसहित) सवत्सा और दूध देनेवाली कपिला गौके एक बार दान देनेसे नष्ट हो जाते हैं। दानमें दी गयी वह गौ अन्तकालमें गोदान करनेवाले व्यक्तिका संचित पापोंसे उद्धार कर देती है॥५८-६१॥

स्वस्थचित्तावस्थामें दी गयी एक गौ, आतुरावस्थामें दी गयी सौ गौ और मृत्युकालमें चित्तविवर्जित व्यक्तिके द्वारा दी गयी एक हजार गौ तथा मरणोत्तरकालमें दी गयी विधिपूर्वक एक लाख गौके दानका फल बराबर ही होता है। (यहाँ स्वस्थावस्थामें गोदान करनेका विशेष महत्त्व बतलाया गया है।) तीर्थमें सत्पात्रको दी गयी एक गौका दान एक लक्ष गोदानके तुल्य होता है॥६२-६३॥

सत्पात्रमें दिया गया दान लक्षगुना होता है। (उस दानसे) दाताको अनन्त फल प्राप्त होता है और (दान लेनेवाले) पात्रको प्रतिग्रह (दान लेने)-का दोष नहीं लगता॥६४॥

स्वाध्याय और होम करनेवाला तथा दूसरेके द्वारा पकाये गये अन्नको न खानेवाला अर्थात् स्वयंपाकी ब्राह्मण रत्नपूर्ण पृथ्वीका दान लेकर भी प्रतिग्रहदोषसे लिप्त नहीं होता ॥ ६५ ॥

विष और शीतको नष्ट करनेवाले मन्त्र और आग भी क्या दोषके भागी होते हैं? अपात्रको दी गयी वह गौ दाताको नरकमें ले जाती है और अपात्र प्रतिग्रहीताको एक-सौएक पीढ़ीके पुरुषोंके सहित नरकमें गिराती है, इसलिये अपने कल्याणकी इच्छा करनेवाले विद्वान् व्यक्तिको अपात्रको दान नहीं देना चाहिये॥६६-६७॥

एक गौ एक ही ब्राह्मणको देनी चाहिये। बहुत ब्राह्मणोंको एक गौ कदापि नहीं देनी चाहिये। वह गौ यदि बेची गयी अथवा बाँटी गयी तो सात पीढ़ीतकके पुरुषोंको जला देती है॥६८॥

(हे खगेश्वर!) मैंने तुमसे पहले वैतरणी नदीके विषयमें कहा था, उसे पार करनेके उपायभूत (वैतरणी) गोदानके विषयमें मैं तुमसे कहता हूँ- ॥६९ ॥

काले अथवा लाल रंगकी गौको सोनेकी सींग, चाँदीके खुर और काँसेके पात्रकी दोहनीके सहित दो काले रंगके वस्त्रोंसे आच्छादित करे। उसके कण्ठमें घण्टा बाँधे तब कपासके ऊपर वस्त्रसहित ताम्रपात्रको स्थापित करके वहाँ लोहदण्डसहित सोनेकी यममूर्ति भी स्थापित करे और काँसेके पात्रमें घृत रखकर यह सब ताम्रपात्रके ऊपर रखे। ईखकी नाव बनाकर और रेशमी-सूत्रसे उसे बाँधकर, भूमिपर गड्ढा खोदे एवं उसमें जल भरकर वह ईखकी नाव उसमें डाले ॥७०-७३ ॥

उसके समीप सूर्यकी देहसे उत्पन्न हुई धेनुको खड़ी करके शास्त्रीय विधि-विधानके अनुसार उसके दानका संकल्प करे। ब्राह्मणोंको अलंकार और वस्त्रका दान दे तथा गन्ध, पुष्प, अक्षत आदिसे विधानपूर्वक (गौकी) पूजा करे। गौकी पूँछको पकड़ करके ईखकी नावपर पैर रखकर ब्राह्मणको आगे करके इस मन्त्रको पढ़े- ॥७४–७६ ॥

हे जगन्नाथ! हे शरणागतवत्सल! भवसागरमें डूबे हुए शोक-संतापकी लहरोंसे दुःख प्राप्त करते हुए जनोंके आप ही रक्षक हैं। हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! विष्णुरूप! भूमिदेव! आप मेरा उद्धार कीजिये। मैंने दक्षिणाके सहित यह वैतरणी-रूपिणी गौ आपको दिया है, आपको नमस्कार है। मैं महाभयावह यममार्गमें सौ योजन विस्तारवाली उस वैतरणी नदीको पार करनेकी इच्छासे आपको इस वैतरणीगौका दान देता हूँ। आपको नमस्कार है॥७७-७९ ॥

हे वैतरणीधेनु ! हे देवेशि! यमद्वारके महामार्गमें वैतरणी नदीको पार करानेके लिये आप मेरी प्रतीक्षा करना, आपको नमस्कार है॥ ८० ॥

मेरे आगे भी गौएँ हों, मेरे पीछे भी गौएँ हों, मेरे हृदयमें भी गौएँ हों और मैं गौओंके मध्यमें निवास करूँ॥८१॥

जो लक्ष्मी सभी प्राणियोंमें प्रतिष्ठित हैं तथा जो देवतामें प्रतिष्ठित हैं वे ही धेनुरूपा लक्ष्मीदेवी मेरे पापको नष्ट करें। ८२॥

इस प्रकार मन्त्रोंसे भलीभाँति प्रार्थना करके हाथ जोड़कर गौ और यमकी प्रदक्षिणा करके सब कुछ ब्राह्मणको प्रदान करे ॥ ८३ ॥

हे खग! इस विधानसे जो वैतरणी धेनुका दान करता है, वह धर्ममार्गसे धर्मराजकी सभामें जाता है॥८४॥

शरीरकी स्वस्थावस्थामें ही वैतरणीविषयक व्रतका आचरण कर लेना चाहिये और वैतरणी पार करनेकी इच्छासे विद्वान्को वैतरणी गौका दान करना चाहिये ॥ ८५ ॥

हे खग! वैतरणी गौका दान करनेसे महामार्गमें वह नदी नहीं आती, इसलिये सर्वदा पुण्यकालमें गोदान करना चाहिये॥८६॥

गंगा आदि सभी तीर्थों में, ब्राह्मणोंके निवासस्थानोंमें, चन्द्र और सूर्यग्रहणके कालमें, संक्रान्तिमें, अमावास्या तिथिमें, उत्तरायण और दक्षिणायन (कर्क और मकर संक्रान्तियों)-में, विषुव (अर्थात् मेष और तुलाकी संक्रान्तिमें), व्यतीपात योग में, युगादि तिथियोंमें तथा अन्यान्य पुण्यकालोंमें उत्तम गोदान देना चाहिये ॥ ८७-८८ ॥

जब कभी भी श्रद्धा उत्पन्न हो जाय और जब भी दानके लिये सुपात्र प्राप्त हो जाय, वही समय दानके लिये पुण्यकाल है; क्योंकि सम्पत्ति अस्थिर है॥ ८९॥

शरीर नश्वर है, सम्पत्ति सदा रहनेवाली है नहीं और मृत्यु प्रतिक्षण निकट आती जा रही है, इसलिये धर्मका संचय करना चाहिये॥९० ॥

अपनी धन-सम्पत्तिके अनुसार किया गया दान अनन्त (फलवाला) होता है, इसलिये अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले व्यक्तिको विद्वान् ब्राह्मणको दान देना चाहिये ॥ ९१॥

अपने हाथसे अपने कल्याणके लिये दिया गया अल्प वित्तवाला वह दान भी अक्षय होता है और उसका फल भी तत्काल प्राप्त होता है॥९२ ॥

दानरूपी पाथेयको लेकर जीव (परलोकके) महामार्गमें सुखपूर्वक जाता है अन्यथा (दानरूपी) पाथेयरहित प्राणीको यममार्गमें क्लेश प्राप्त होता है॥९३॥

पृथ्वीपर मनुष्योंके द्वारा जो-जो दान दिये जाते हैं, यमलोकके मार्गमें वे सभी आगे-आगे उपस्थित हो जाते हैं ॥ ९४॥

महान् पुण्यके प्रभावसे मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है। उस मनुष्ययोनिको प्राप्तकर जो व्यक्ति धर्माचरण करता है, वह परमगतिको प्राप्त करता है॥९५ ॥

धर्मको न जाननेके कारण व्यक्ति (संसारमें) दुःखपूर्वक जन्म लेता है और मरता है। केवल धर्मके सेवनमें ही मनुष्य-जीवनकी सफलता है॥९६॥

धन, पुत्र, पत्नी आदि बान्धव और यह शरीर भी सब कुछ अनित्य है, इसलिये धर्माचरण करना चाहिये ॥९७॥ जबतक मनुष्य जीता है तभीतक बन्धु-बान्धव और पिता आदिका सम्बन्ध रहता है, मरनेके अनन्तर क्षणमात्रमें सम्पूर्ण स्नेहसम्बन्ध निवृत्त हो जाता है॥ ९८॥

जीवितावस्थामें अपना आत्मा ही अपना बन्धु है-ऐसा बार-बार विचार करना चाहिये। मरनेके अनन्तर कौन (उसके उद्देश्यसे) दान देगा? ॥ ९९ ॥

ऐसा जानकर अपने हाथसे ही सब कुछ दान देना चाहिये; क्योंकि जीवन अनित्य है, बादमें अर्थात् उसकी मृत्युके पश्चात् कोई भी उसके लिये दान नहीं देगा॥ १०० ॥

मृत शरीरको काठ और ढेलेके समान पृथ्वीपर छोड़कर बन्धु-बान्धव विमुख होकर लौट जाते हैं, केवल धर्म ही उसका अनुगमन करता है ॥ १०१॥

धन-सम्पत्ति घरमें ही छूट जाती है, सभी बन्धु-बान्धव श्मशानमें छूट जाते हैं, किंतु प्राणीके द्वारा किया हुआ शुभाशुभ कर्म परलोकमें उसके पीछे-पीछे जाता है ॥ १०२ ॥

शरीर आगसे जल जाता है किंतु किया हुआ कर्म साथमें रहता है। प्राणी जो कुछ पाप अथवा पुण्य करता है, उसका वह सर्वत्र भोग प्राप्त करता है॥ १०३॥

इस दुःखपूर्ण संसारसागरमें कोई भी किसीका बन्धु नहीं है। प्राणी अपने कर्मसम्बन्धसे (संसारमें) आता है और फलभोगसे कर्मका क्षय होनेपर पुनः चला जाता है। (मृत्युको प्राप्त हो जाता है।) ॥ १०४॥

माता-पिता, पुत्र, भाई, बन्धु और पत्नी आदिका परस्पर मिलन प्याऊपर एकत्र हुए जन्तुओंके समान अथवा नदीमें बहनेवाले काष्ठसमूहके समान नितान्त चंचल अर्थात् अस्थिर है॥१०५ ॥

किसके पुत्र, किसके पौत्र, किसकी भार्या और किसका धन? संसारमें कोई किसीका नहीं है। इसलिये अपने हाथसे स्वयं दान देना चाहिये ॥ १०६ ॥

जबतक धन अपने अधीन है, तबतक ब्राह्मणको दान कर दे; क्योंकि धन दूसरेके अधीन (पराया) हो जानेपर तो दान देनेके लिये कहनेका उत्साह (साहस) भी नहीं होगा॥ १०७॥

पूर्वजन्ममें किये हुए दानके फलस्वरूप यहाँ बहुत सारा धन प्राप्त हुआ है, इसलिये ऐसा जानकर धर्मके लिये धन देना चाहिये ॥ १०८॥

धर्मसे अर्थकी प्राप्ति होती है, धर्मसे कामकी प्राप्ति होती है और धर्मसे ही मोक्षकी भी प्राप्ति होती है, इसलिये धर्माचरण करना चाहिये॥ १०९॥

धर्म श्रद्धासे धारण किया जाता है, बहुतसी धनराशिसे नहीं। अकिंचन मुनिगण भी श्रद्धावान् होकर स्वर्गको प्राप्त हुए हैं ॥ ११० ॥

जो मनुष्य पत्र, पुष्प, फल अथवा जल मुझे भक्तिभावसे समर्पित करता है, उस संयतात्माके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये पदार्थों को मैं प्राप्त करता हूँ॥ १११॥

इसलिये विधिविधानपूर्वक अवश्य ही दान देना चाहिये। थोड़ा हो या अधिक इसकी कोई गणना नहीं करनी चाहिये॥ ११२ ॥

जो पुत्र पृथ्वीपर पड़े हुए आतुर पिताके द्वारा दान दिलाता है, द्रौपदीने शाक, गजेन्द्रने पुष्प, शबरीने फल (बेर) तथा रन्तिदेवने जल प्रदानकर भगवत्कृपा प्राप्त की। वह धर्मात्मा पुत्र देवताओंके लिये भी पूजनीय होता है ॥ ११३ ॥

माता-पिताके निमित्त जो धन पुत्रके द्वारा सत्पात्रको समर्पित किया जाता है, उससे पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रके साथ वह व्यक्ति स्वयं भी पवित्र | जाता है ॥ ११४ ॥

पिताके उद्देश्यसे किये गये दानसे सौ गुना, माताके उद्देश्यसे किये गये दानसे हजार गुना, बहनके उद्देश्यसे किये गये दानसे दस हजार गुना और सहोदर भाईके निमित्त किये गये दानसे अनन्त गुना पुण्य प्राप्त होता है॥ ११५ ॥

दान देनेवाला उपद्रवग्रस्त नहीं होता, उसे नरकयातना नहीं प्राप्त होती और मृत्युकालमें उसे यमदूतोंसे भी कोई भय नहीं होता ॥ ११६ ॥

हे खग! यदि कोई व्यक्ति लोभसे आतुरकालमें दान नहीं देते, वे कंजूस पापी (प्राणी) मरनेके अनन्तर शोकमग्न होते हैं ॥ ११७ ॥

आतुरकालमें (आतुरके उद्देश्यसे) जो पुत्र, पौत्र, सहोदर भाई, सगोत्री और सुहृज्जन दान नहीं देते, वे ब्रह्महत्यारे हैं, इसमें संशय नहीं है॥ ११८ ॥

॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ‘आतुरदाननिरूपण’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८॥

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