यमयातनाका वर्णन, चित्रगुप्तद्वारा श्रवणोंसे प्राणियोंके शुभाशुभ कर्मके विषयमें पूछना, श्रवणोंद्वारा वह सब धर्मराजको बताना और धर्मराजद्वारा दण्डका निर्धारण
गरुडजीने कहा-हे केशव! यममार्गकी यात्रा पूरी करके यमके भवनमें जाकर पापी किस प्रकारकी यातनाको भोगता है? वह मुझे बतलाइये ॥१॥
श्रीभगवान् बोले-हे विनताके पुत्र गरुड! मैं (नरकयातनाको) आदिसे अन्ततक कहूँगा, सुनो । मेरे द्वारा नरकका वर्णन किये जानेपर (उसे सुननेमात्रसे ही) तुम काँप उठोगे॥ २॥ हे कश्यपनन्दन! बहुभीतिपुरके आगे चौवालीस योजनमें फैला हुआ धर्मराजका विशाल पुर है॥३॥
हाहाकारसे परिपूर्ण उस पुरको देखकर पापी प्राणी क्रन्दन करने लगता है। उसके क्रन्दनको सुनकर यमपुरमें विचरण करनेवाले (यमके गण)- ॥४॥
प्रतीहार (द्वारपाल)-के पास जाकर उस (पापी)-के विषयमें बताते हैं। धर्मराजके द्वारपर सर्वदा धर्मध्वज नामक प्रतीहार स्थित रहता है॥५॥
वह (द्वारपाल) जाकर चित्रगुप्तसे उस प्राणीके शुभ और अशुभ कर्मको बताता है। उसके बाद चित्रगुप्त भी उसके विषयमें धर्मराजसे निवेदन करते हैं॥६॥
हे तार्क्ष्य! जो नास्तिक और महापापी प्राणी हैं, उन सभीके विषयमें धर्मराज यथार्थरूपसे भलीभाँति जानते हैं ॥७॥
तो भी (वे) चित्रगुप्तसे उन प्राणियोंके पापके विषयमें पूछते हैं और सर्वज्ञ चित्रगुप्त भी श्रवणोंसे पूछते हैं॥ ८॥
श्रवण ब्रह्माके पुत्र हैं। वे स्वर्ग, पृथ्वी तथा पातालमें विचरण करनेवाले तथा दूरसे ही सुन एवं जान लेनेवाले हैं। उनके नेत्र सुदूरके दृश्योंको भी देख लेनेवाले हैं ॥९॥
श्रवणी नामकी उनकी पृथक्-पृथक् पत्नियाँ भी उसी प्रकारके स्वरूपवाली हैं अर्थात् श्रवणोंके समान ही हैं। वे स्त्रियोंकी सभी प्रकारकी चेष्टाओंको तत्त्वतः जानती हैं ॥ १०॥
मनुष्य छिपकर अथवा प्रत्यक्षरूपसे जो कुछ करता और कहता है, वह सब श्रवण एवं श्रवणियाँ चित्रगुप्तसे बताते हैं ॥ ११॥
वे श्रवण और श्रवणियाँ धर्मराजके गुप्तचर हैं, जो मनुष्यके मानसिक, वाचिक और कायिक-सभी प्रकारके शुभ और अशुभ कर्मोको ठीक-ठीक जानते हैं ॥१२॥
मनुष्य और देवताओंके अधिकारी वे श्रवण और श्रवणियाँ सत्यवादी हैं। उनके पास ऐसी शक्ति है, जिसके बलपर वे मनुष्यकृत कर्मोंको बतलाते हैं ॥ १३॥
व्रत, दान और सत्य वचनसे जो मनुष्य उन्हें प्रसन्न करता है, उसके प्रति वे सौम्य तथा स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हो जाते हैं ॥ १४॥
वे सत्यवादी श्रवण पापियोंके पापकर्मोंको जानकर धर्मराजके सम्मुख यथावत् कह देनेके कारण (पापियोंके लिये) दु:खदायी हो जाते हैं ॥ १५ ॥
सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, आकाश, भूमि, जल, हृदय, यम, दिन, रात, दोनों संध्याएँ और धर्म-ये मनुष्यके वृत्तान्तको जानते हैं ॥ १६॥
धर्मराज, चित्रगुप्त, श्रवण और सूर्य आदि मनुष्यके शरीरमें स्थित सभी पाप और पुण्योंको पूर्णतया देखते हैं ॥ १७॥
इस प्रकार पापियोंके पापके विषयमें सुनिश्चित जानकारी प्राप्त करके यम उन्हें बुलाकर अपना अत्यन्त भयंकर रूप दिखाते हैं ॥ १८ ॥
वे पापी यमके ऐसे भयंकर रूपको देखते हैं जो हाथमें दण्ड लिये हुए, बहुत बड़ी कायावाले, भैंसेके ऊपर संस्थित, प्रलयकालीन मेघके समान आवाजवाले, काजलके पर्वतके समान, बिजलीकी प्रभावाले, आयुधोंके कारण भयंकर, बत्तीस भुजाओंवाले, तीन योजनके लम्बे-चौड़े विस्तारवाले, बावलीके समान गोल नेत्रवाले, बड़ी-बड़ी दाढ़ोंके कारण भयंकर मुखवाले, लाल-लाल आँखोंवाले और लम्बी नाकवाले हैं ॥ १९–२१ ॥
मृत्यु और ज्वर आदिसे संयुक्त होनेके कारण चित्रगुप्त भी भयावह हैं । यमके समान भयानक सभी दूत उनके समीप (पापियोंको डरानेके लिये) गरजते रहते हैं ॥ २२ ॥
उन (चित्रगुप्त)-को देखकर भयभीत होकर पापी हाहाकार करने लगता है। दान न करनेवाला वह पापात्मा काँपता है और बार-बार विलाप करता है ॥ २३॥
तब चित्रगुप्त यमकी आज्ञासे क्रन्दन करते हुए और अपने पापकर्मोंके विषयमें सोचते हुए उन सभी प्राणियोंसे कहते हैं ॥ २४ ॥
अरे पापियो! दुराचारियो! अहंकारसे दूषितो! तुम अविवेकियोंने क्यों पाप कमाया है ?॥ २५॥
कामसे, क्रोधसे तथा पापियोंकी संगतिसे जो पाप तुमने किया है, वह दुःख देनेवाला है, फिर हे मूर्खजनो! तुमने वह (पापकर्म) क्यों किया? ॥ २६ ॥
पूर्वजन्ममें तुम लोगोंने जिस प्रकार अत्यन्त हर्षपूर्वक पापकर्मोंको किया है, उसी प्रकार यातना भी भोगनी चाहिये। इस समय (यातना भोगनेसे) क्यों पराङ्मुख हो रहे हो? ॥ २७ ॥
तुमलोगोंने जो बहुत-से पाप किये हैं, वे पाप ही तुम्हारे दुःखके कारण हैं। इसमें हमलोग कारण नहीं हैं ॥ २८॥
मूर्ख हो या पण्डित, दरिद्र हो या धनवान् और सबल हो या निर्बल-यमराज सभीसे समान व्यवहार करनेवाले कहे गये हैं ॥ २९॥
चित्रगुप्तके इस प्रकारके वचनोंको सुनकर वे पापी अपने कर्मोंके विषयमें सोचते हुए निश्चेष्ट होकर चुपचाप बैठ जाते हैं ॥३०॥
धर्मराज भी चोरकी भाँति निश्चल बैठे हुए उन पापियोंको देखकर उनके पापोंका मार्जन करनेके लिये यथोचित दण्ड देनेकी आज्ञा करते हैं ॥ ३१॥
इसके बाद वे निर्दयी दूत (उन्हें) पीटते हुए कहते हैं-हे पापी! महान् घोर और अत्यन्त भयानक नरकोंमें चलो॥ ३२॥
यमके आज्ञाकारी प्रचण्ड और चण्डक आदि नामवाले दूत एक पाशसे उन्हें बाँधकर नरककी ओर ले जाते हैं ॥ ३३ ॥
वहाँ जलती हुई अग्निके समान प्रभावाला एक विशाल वृक्ष है, जो पाँच योजनमें फैला हुआ है तथा एक योजन ऊँचा है॥ ३४॥
उस वृक्षमें नीचे मुख करके उसे साँकलोंसे बाँधकर वे दूत पीटते हैं। वहाँ जलते हुए वे रोते हैं, (पर वहाँ) उनका कोई रक्षक नहीं होता ॥ ३५ ॥
उसी शाल्मली-वृक्षमें भूख और प्याससे पीडित तथा यमदूतोंद्वारा पीटे जाते हुए अनेक पापी लटकते रहते हैं ॥ ३६॥
वे आश्रयविहीन पापी अंजलि बाँधकर हे यमदूतो! मेरे अपराधको क्षमा कर दो ऐसा उन दूतोंसे निवेदन करते हैं ॥ ३७॥
बार-बार लोहेकी लाठियों, मुद्गरों, भालों, बर्छियों, गदाओं और मूसलोंसे उन दूतोंके द्वारा वे अत्यधिक मारे जाते हैं ॥ ३८॥
मारनेसे (जब) वे चेष्टारहित और मूछित हो जाते हैं, तब उन निश्चेष्ट पापियोंको देखकर यमके दूत कहते हैं ॥ ३९॥
अरे दुराचारियो! पापियो! तुमलोगोंने दुराचरण क्यों किया? सुलभ होनेवाले भी जल और अन्नका दान कभी क्यों नहीं दिया? ॥ ४० ॥
(तुमलोगोंने) आधा ग्रास भी कभी किसीको नहीं दिया और न ही कुत्ते तथा कौएके लिये बलि ही दी। अतिथियोंको नमस्कार नहीं किया और पितरोंका तर्पण नहीं किया॥४१॥
यमराज तथा चित्रगुप्तका उत्तम ध्यान भी नहीं किया और उनके मन्त्रोंका जप नहीं किया, जिससे तुम्हें यह यातना नहीं होती॥ ४२ ॥
कभी कोई तीर्थयात्रा नहीं की, देवताओंकी पूजा भी नहीं की। गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी तुमने हन्तकार* नहीं निकाला॥४३॥
संतोंकी सेवा की नहीं, इसलिये (अब) स्वयं किये गये पापका फल भोगो। चूँकि तुम धर्महीन हो, इसलिये तुम्हें बहुत अधिक पीटा जा रहा है॥४४॥
भगवान् हरि ही ईश्वर हैं, वे ही अपराधोंको क्षमा करनेमें समर्थ हैं, हम तो उन्हींकी आज्ञासे अपराधियोंको दण्ड देनेवाले हैं ॥ ४५ ॥
ऐसा कहकर वे दूत निर्दयतापूर्वक उन्हें पीटते हैं और उनसे पीटे जानेके कारण वे जलते हुए अंगारके समान नीचे गिर जाते हैं ॥ ४६॥
गिरनेसे उस (शाल्मली) वृक्षके पत्तोंसे उनका शरीर कट जाता है। नीचे गिरे हुए उन प्राणियोंको कुत्ते खाते हैं और वे रोते हैं॥४७॥
रोते हुए उन पापियोंके मुखमें यमदूत धूल भर देते हैं तथा कुछ पापियोंको विविध पाशोंसे बाँधकर मुद्गरोंसे पीटते हैं ॥४८॥
कुछ पापी आरेसे काष्ठकी भाँति दो टुकड़ोंमें किये जाते हैं और कुछ भूमिपर गिराकर कुल्हाड़ीसे खण्ड-खण्ड किये जाते हैं॥४९॥
कुछको गड्ढेमें आधा गाड़कर सिरमें बाणोंसे भेदन किया जाता है। कुछ दूसरे पेरनेवाले यन्त्रमें डालकर इक्षुदण्ड (गन्ने)-की भाँति पेरे जाते हैं ॥ ५० ॥
कुछको चारों ओरसे जलते हुए अंगारोंसे युक्त उल्मुक (जलती हुई लकड़ी)-से ढक करके लौहपिण्डकी भाँति धधकाया जाता है॥५१॥
कुछको घीके खौलते हुए कड़ाहेमें, कुछको तेलके कड़ाहेमें तले जाते हुए बड़ेकी भाँति इधर-उधर चलाया जाता है॥५२॥
किन्हींको मतवाले गजेन्द्रोंके सम्मुख रास्तेमें फेंक दिया जाता है, किन्हींको हाथ और पैर बाँधकर अधोमुख लटकाया जाता है ॥ ५३॥
किन्हींको कुँएमें फेंका जाता है, किन्हींको पर्वतोंसे गिराया जाता है, कुछ दूसरे कीड़ोंसे युक्त कुण्डोंमें डुबो दिये जाते हैं, जहाँ वे कीड़ोंके द्वारा व्यथित होते हैं ॥५४॥
कुछ (पापी) वज्रके समान चोंचवाले बड़ेबड़े कौओं, गीधों और मांसभोजी पक्षियोंद्वारा शिरोदेशमें, नेत्रमें और मुखमें चोचोंसे आघात करके नोंचे जाते हैं ॥ ५५ ॥
कुछ दूसरे पापियोंसे ऋणको वापस करनेकी प्रार्थना करते हुए कहते हैं- मेरा धन दो, मेरा धन दो। यमलोकमें मैंने तुम्हें देख लिया है, मेरा धन तुम्हींने लिया है ॥५६॥
नरकमें इस प्रकार विवाद करते हुए पापियोंके अंगोंसे सड़सियोंद्वारा मांस नोंचकर (यमदूत) उन्हें देते हैं ॥ ५७॥
इस प्रकार उन पापियोंको सम्यक् प्रताडित करके यमकी आज्ञासे यमदूत खींचकर तामिस्र आदि घोर नरकोंमें फेंक देते हैं ॥५८ ॥
उस वृक्षके समीपमें ही बहुत दु:खोंसे परिपूर्ण नरक हैं, जिनमें प्राप्त होनेवाले महान् दु:खोंका वर्णन वाणीसे नहीं किया जा सकता ॥ ५९॥
हे आकाशचारिन् गरुड! नरकोंकी संख्या चौरासी लाख है, उनमेंसे अत्यन्त भयंकर और प्रमुख नरकोंकी संख्या इक्कीस है॥६० ॥
तामिस्र, लोहशंकु, महारौरव, शाल्मली, रौरव, कुड्मल, कालसूत्रक, पूतिमृत्तिक, संघात, लोहितोद, सविष, संप्रतापन, महानिरय, काकोल, संजीवन, महापथ, अवीचि, अन्धतामिस्र, कुम्भीपाक, सम्प्रतापन तथा तपनये इक्कीस नरक हैं॥६१–६३॥
ये सभी अनेक प्रकारकी यातनाओंसे परिपूर्ण होनेके कारण अनेक भेदोंसे परिकल्पित हैं। अनेक प्रकारके पापोंका फल इनमें प्राप्त होता है और ये यमके दूतोंसे अधिष्ठित हैं ॥६४ ॥
इन नरकोंमें गिरे हुए मूर्ख, पापी, अधर्मी जीव कल्पपर्यन्त उन-उन नरक-यातनाओंको भोगते हैं ॥६५॥
तामिस्र और अन्धतामिस्र तथा रौरवादि नरकोंकी जो यातनाएँ हैं, उन्हें स्त्री और पुरुष पारस्परिक संगसे निर्मितकर भोगते हैं ॥६६॥
इस प्रकार कुटुम्बका भरण-पोषण करनेवाला अथवा केवल अपना पेट भरनेवाला भी यहाँ कुटुम्ब और शरीर दोनों छोड़कर मृत्युके अनन्तर इस प्रकारका फल भोगता है॥६७॥
प्राणियोंके साथ द्रोह करके भरण-पोषण किये गये अपने (स्थूल) शरीरको यहीं छोड़कर पापकर्मरूपी पाथेयके साथ पापी अकेला ही अंधकारपूर्ण नरकमें जाता है॥ ६८॥
जिसका द्रव्य चोरी चला गया है ऐसे व्यक्तिकी भाँति पापी पुरुष दैवसे प्राप्त (अधर्मपूर्वक) कुटुम्बपोषणके फलको नरकमें आतुर होकर भोगता है॥६९ ॥
केवल अधर्मसे कुटुम्बके भरण-पोषणके लिये प्रयत्नशील व्यक्ति अंधकारकी पराकाष्ठा अन्धतामिस्र नामक नरकमें जाता है॥ ७० ॥
मनुष्यलोकके नीचे नरकोंकी जितनी यातनाएँ हैं, क्रमशः उनका भोग भोगते हुए (वह पापी) शुद्ध होकर पुनः इस मर्त्यलोकमें जन्म पाता है॥७१ ॥
॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें यमयातनानिरूपण नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥३॥