यममार्गकी यातनाओंका वर्णन, वैतरणी नदीका स्वरूप, यममार्गके सोलह पुरोंमें क्रमश: गमन तथा वहाँ पुत्रादिकोंद्वारा दिये गये पिण्डदानको ग्रहण करना
गरुडजीने कहा-हे केशव! यमलोकका मार्ग किस प्रकार दुःखदायी होता है। पापीलोग वहाँ किस प्रकार जाते हैं, वह मुझे बताइये ॥१॥
श्रीभगवान् बोले-हे गरुड! महान् दुःख प्रदान करनेवाले यममार्गके विषयमें मैं तुमसे कहता हूँ , मेरा भक्त होनेपर भी तुम उसे सुनकर काँप उठोगे॥२॥
यममार्गमें वृक्षकी छाया नहीं है, जहाँ प्राणी विश्राम कर सके। उस यममार्गमें अन्न आदि भी नहीं हैं, जिनसे कि वह अपने प्राणोंकी रक्षा कर सके॥३॥
हे खग! वहाँ कहीं जल भी नहीं महदुःखप्रदं ततः दीखता, जिसे अत्यन्त तृषातुर वह (जीव) पी सके। वहाँ प्रलयकालकी भाँति बारहों सूर्य तपते रहते हैं ॥४॥
उस मार्गमें जाता हुआ पापी कभी बर्फीली हवासे पीडित होता है तथा कभी काँटे चुभते हैं और कभी महाविषधर सर्पोके द्वारा डॅसा जाता है॥५॥
(वह) पापी कहीं सिंहों, व्याघ्रों और भयंकर कुत्तोंद्वारा खाया जाता है, कहीं बिच्छुओंद्वारा डॅसा जाता है और कहीं उसे आगसे जलाया जाता है॥६॥
तब कहीं अति भयंकर महान् असिपत्रवन नामक नरकमें वह पहुँचता है, जो दो हजार योजन विस्तारवाला कहा गया है॥७॥
वह वन कौओं, उल्लुओं, वटों (पक्षिविशेषों), गीधों, सरघों तथा डाँसोंसे व्याप्त है। उसमें चारों ओर दावाग्नि व्याप्त है, असिपत्रके पत्तोंसे वह (जीव) उस वनमें छिन्न-भिन्न हो जाता है॥ ८॥
कहीं अंधे कुँएमें गिरता है, कहीं विकट पर्वतसे गिरता है, कहीं छूरेकी धारपर चलता है तो कहीं कीलोंके ऊपर चलता है ॥९॥
कहीं घने अन्धकारमें गिरता है, कहीं उग्र (भय उत्पन्न करनेवाले) जलमें गिरता है, कहीं जोंकोंसे भरे हुए कीचड़में गिरता है तो कहीं जलते हुए कीचड़में गिरता है॥ १० ॥
कहीं तपी हुई बालुकासे व्याप्त और कहीं धधकते हुए ताम्रमय मार्ग, कहीं अंगारकी राशि और कहीं अत्यधिक धुएँसे भरे हुए मार्गपर उसे चलना पड़ता है॥ ११॥
कहीं अंगारकी वृष्टि होती है, कहीं बिजली गिरनेके साथ शिलावृष्टि होती है, कहीं रक्तकी, कहीं शस्त्रकी और कहीं गर्म जलकी वृष्टि होती है॥ १२ ॥
कहीं खारे कीचड़की वृष्टि होती है, (मार्गमें) कहीं गहरी खाई है, कहीं पर्वत-शिखरोंकी चढ़ाई है और कहीं कन्दराओंमें प्रवेश करना पड़ता है॥ १३ ॥
वहाँ (मार्गमें) कहीं घना अंधकार है तो कहीं दुःखसे चढ़ी जानेयोग्य शिलाएँ हैं, कहीं मवाद, रक्त तथा अगाधा विष्ठासे भरे हुए तालाब हैं ॥ १४॥
(यम) मार्गके बीचोबीच अत्यन्त उग्र और घोर वैतरणी नदी बहती है। वह देखनेपर दुःखदायिनी हो तो क्या आश्चर्य? उसकी वार्ता ही भय पैदा करनेवाली है॥ १५ ॥
वह सौ योजन चौड़ी है, उसमें पूय (पीब-मवाद) और शोणित (रक्त) बहते रहते हैं । हड्डियोंके समूहसे तट बने हैं अर्थात् उसके तटपर हड्डियोंका ढेर लगा रहता है। मांस और रक्तके कीचड़वाली वह (नदी) दुःखसे पार की जानेवाली है॥१६॥
अथाह गहरी और पापियोंके द्वारा दुःखपूर्वक पार की जानेवाली वह नदी केशरूपी सेवारसे भरी होनेके कारण दुर्गम है। वह विशालकाय ग्राहों (घड़ियालों)-से व्याप्त है और सैकड़ों प्रकारके घोर पक्षियोंसे आवृत है ॥ १७ ॥
हे गरुड! आये हुए पापीको देखकर वह नदी ज्वाला और धूमसे भरकर कड़ाहमें रखे घृतकी भाँति खौलने लगती है॥ १८॥
वह नदी सूईके समान मुखवाले भयानक कीड़ोंसे चारों ओर व्याप्त है। वज्रके समान चोंचवाले बड़ेबड़े गीध एवं कौओंसे घिरी हुई है॥ १९॥
वह नदी शिशुमार, मगर, जोंक, मछली, कछुए तथा अन्य मांसभक्षी जलचर-जीवोंसे भरी पड़ी है॥ २०॥
उसके प्रवाहमें गिरे हुए बहुत-से पापी रोते-चिल्लाते हैं और हे भाई!, हा पुत्र!, हा तात!-इस प्रकार कहते हुए बार-बार विलाप करते हैं ॥ २१॥
भूख और प्याससे व्याकुल होकर पापी जीव रक्तका पान करते हैं। वह नदी झागपूर्ण रक्तके प्रवाहसे व्याप्त, महाघोर, अत्यन्त गर्जना करनेवाली, देखनेमें दुःख पैदा करनेवाली तथा भयावह है। उसके दर्शनमात्रसे पापी चेतनाशून्य हो जाते हैं ॥ २२-२३ ॥
बहुत-से बिच्छू तथा काले साँसे व्याप्त उस नदीके बीचमें गिरे हुए पापियोंकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है॥ २४॥
उसके सैकड़ों, हजारों भँवरोंमें पड़कर पापी पातालमें चले जाते हैं। क्षणभर पातालमें रहते हैं और एक क्षणमें ही ऊपर चले आते हैं ॥ २५ ॥
हे खग! वह नदी पापियोंके गिरनेके लिये ही बनायी गयी है। उसका पार नहीं दीखता। वह अत्यन्त दुःखपूर्वक तरनेयोग्य तथा बहुत दुःख देनेवाली है॥ २६ ॥
इस प्रकार बहुत प्रकारके क्लेशोंसे व्याप्त अत्यन्त दुःखप्रद यममार्गमें रोते-चिल्लाते हुए दुःखी पापी जाते हैं ॥ २७॥
कुछ पापी पाशसे बँधे होते हैं कुछ अंकुशमें फँसाकर खींचे जाते हैं, और कुछ शस्त्रके अग्रभागसे जाये जाते हैं ॥ २८ ॥
कुछ नाकके अग्रभागमें लगे हुए पाशसे और कुछ कानमें लगे हुए पाशसे खींचे जाते हैं। कुछ कालपाशसे खींचे जाते हैं और कुछ कौओंसे खींचे जाते हैं ॥ २९ ॥
वे पापी गरदन, हाथ तथा पैरमें जंजीरसे बँधे हुए तथा अपनी पीठपर लोहेके भारको ढोते हुए मार्गपर चलते हैं ॥ ३० ॥
अत्यन्त घोर यमदूतोंके द्वारा मुद्गरोंसे पीटे जाते हुए वे मुखसे रक्त वमन करते हुए तथा वमन किये हुए रक्तको पुनः पीते (हुए जाते) हैं ॥ ३१ ॥
(उस समय) अपने दुष्कर्मोंको सोचते हुए प्राणी अत्यन्त ग्लानिका अनुभव करते हैं और अतीव दुःखित होकर यमलोकको जाते हैं ॥३२॥
इस प्रकार यममार्गमें जाता हुआ वह मन्दबुद्धि प्राणी हा पुत्र!, हा पौत्र! इस प्रकार पुत्र और पौत्रोंको पुकारते हुए, हाय-हाय इस प्रकार विलाप करते हुए पश्चात्तापकी ज्वालासे जलता रहता है॥ ३३ ॥
(वह विचार करता है कि) महान् पुण्यके सम्बन्धसे मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है, उसे प्राप्तकर भी मैंने धर्माचरण नहीं किया, यह मैंने क्या किया॥३४॥
मैंने दान दिया नहीं, अग्निमें हवन किया नहीं, तपस्या की नहीं, देवताओंकी भी पूजा की नहीं, विधि-विधानसे तीर्थसेवा की नहीं, अतः हे जीव! जो तुमने किया है, उसीका फल भोगो॥ ३५ ॥
(हे देही! तुमने) ब्राह्मणोंकी पूजा की नहीं, देवनदी गंगाका सहारा लिया नहीं, सत्पुरुषोंकी सेवा की नहीं, कभी भी दूसरेका उपकार किया नहीं, इसलिये हे जीव! जो तुमने किया है, अब उसीका फल भोगो॥ ३६॥
मनुष्यों और पशु-पक्षियोंके लिये जलहीन प्रदेशमें जलाशयका निर्माण किया नहीं। गौओं और ब्राह्मणोंकी आजीविकाके लिये थोड़ा भी प्रयास किया नहीं, इसलिये हे देही! तुमने जो किया है, उसीसे अपना निर्वाह करो॥ ३७॥
तुमने नित्य-दान किया नहीं, गौओंके दैनिक भरण-पोषणकी व्यवस्था की नहीं, वेदों और शास्त्रोंके वचनोंको प्रमाण माना नहीं, पुराणोंको सुना नहीं, विद्वानोंकी पूजा की नहीं, इसलिये हे देही! जो तुमने किया है, उन्हीं दुष्कर्मोंके फलको अब भोगो॥ ३८॥
(नारी-जीव भी पश्चात्ताप करते हुए कहता है) मैंने पतिकी हितकर आज्ञाका पालन किया नहीं, पातिव्रत्य धर्मका कभी पालन किया नहीं और गुरुजनोंको गौरवोचित सम्मान कभी दिया नहीं, इसलिये हे देहिन् ! जो तुमने किया, उसीका अब फल भोगो॥ ३९॥
धर्मकी बुद्धिसे एकमात्र पतिकी सेवा की नहीं और पतिकी मृत्यु हो जानेपर वह्निप्रवेश करके उनका अनुगमन किया नहीं, वैधव्य प्राप्त करके त्यागमय जीवन व्यतीत किया नहीं, इसलिये हे देहिन्! जैसा किया, उसका फल अब भोगो॥४०॥
मासपर्यन्त किये जानेवाले उपवासोंसे तथा चान्द्रायण-व्रतों आदि सुविस्तीर्ण नियमोंके पालनसे शरीरको सुखाया नहीं। पूर्वजन्ममें किये हुए दुष्कर्मोंसे बहुत प्रकारके दुःखोंको प्राप्त करनेके लिये नारी-शरीर प्राप्त किया था॥ ४१ ॥
इस तरह बहुत प्रकारसे विलाप करके पूर्वदेहका स्मरण करते हुए ‘मेरा मानव-जन्म (शरीर) कहाँ चला गया’ इस प्रकार चिल्लाता हुआ वह यममार्गमें चलता है॥ ४२ ॥
हे तात! (इस प्रकार) सतरह दिनतक अकेले वायुवेगसे चलते हुए अठारहवें दिन वह प्रेत सौम्यपुरमें जाता है॥४३॥
उस रमणीय श्रेष्ठ सौम्यपुरमें प्रेतोंका महान् गण रहता है। वहाँ पुष्पभद्रा नदी और अत्यन्त प्रिय दिखनेवाला वटवृक्ष है॥४४॥
उस पुरमें यमदूतोंके द्वारा उसे विश्राम कराया जाता है। वहाँ दुःखी होकर वह स्त्री-पुत्रोंके द्वारा प्राप्त सुखोंका स्मरण करता है॥ ४५ ॥
वह अपने धन, भृत्य और पौत्र आदिके विषयमें जब सोचने लगता है तो वहाँ रहनेवाले यमके किंकर उससे इस प्रकार कहते हैं- ॥४६॥
धन कहाँ है? पुत्र कहाँ है? पत्नी कहाँ है? मित्र कहाँ है? बन्धु-बान्धव कहाँ हैं ? हे मूढ! जीव अपने कर्मोपार्जित फलको ही भोगता है, इसलिये सुदीर्घ कालतक इस यममार्गपर चलो ॥ ४७॥
हे परलोकके राही! तू यह जानता है कि राहगीरोंका बल और संबल पाथेय ही होता है, जिसके लिये तूने प्रयास तो किया नहीं। तू यह भी जानता था कि तुम्हें निश्चित ही उस मार्गपर चलना है और उस रास्तेपर कोई भी लेन-देन हो नहीं सकता॥ ४८ ॥
यह मार्ग तो बालकोंको भी विदित रहता है। हे मनुष्य! क्या तुमने इसे सुना नहीं था? क्या तुमने ब्राह्मणोंके मुखसे पुराणोंके वचन सुने नहीं थे॥ ४९ ॥
इस प्रकार कहकर मुद्गरोंसे पीटा जाता हुआ वह जीव गिरते-पड़ते-दौड़ते हुए बलपूर्वक पाशोंसे खींचा जाता है ॥५०॥
यहाँ स्नेह अथवा कृपाके कारण पुत्र-पौत्रोंद्वारा दिये हुए मासिक पिण्डको खाता है। उसके बाद वह जीव सौरिपुरको प्रस्थान करता है॥५१॥
उस सौरिपुरमें कालके रूपको धारण करनेवाला जंगम नामक राजा (रहता) है। उसे देखकर वह जीव भयभीत होकर विश्राम करना चाहता है॥५२॥
उस पुरमें गया हुआ वह जीव अपने स्वजनोंके द्वारा दिये हुए त्रैपाक्षिक अन्न-जलको खाकर उस पुरको पार करता है॥५३॥
उसके बाद शीघ्रतापूर्वक वह प्रेत नगेन्द्र-भवनकी ओर जाता है और वहाँ भयंकर वनोंको देखकर दुःखी होकर रोता है॥५४॥
दयारहित दूतोंके द्वारा खींचे जानेपर वह बार-बार रोता है और दो मासके अन्तमें वह दुःखी होकर वहाँ जाता है॥ ५५ ॥
बान्धवोंद्वारा दिये पिण्ड, जल, वस्त्रका उपभोग करके यमकिंकरोंके द्वारा पाशसे बार-बार खींचकर पुनः आगे ले जाया जाता है॥५६॥
तीसरे मासमें वह गन्धर्वनगरको प्राप्त होता है और वहाँ त्रैमासिक पिण्ड खाकर आगे चलता है॥५७॥
चौथे मासमें वह शैलागमपुरमें पहुँचता है और वहाँ प्रेतके ऊपर बहुत अधिक पत्थरोंकी वर्षा होती है॥ ५८ ॥
(वहाँ) चौथे मासिक पिण्डको खाकर वह कुछ सुखी होता है। उसके बाद पाँचवें महीनेमें वह प्रेत क्रौंचपुर पहुँचता है॥५९॥
क्रौंचपुरमें स्थित वह प्रेत वहाँ बान्धवोंद्वारा हाथसे दिये गये पाँचवें मासिक पिण्डको खाकर आगे क्रूरपुरकी ओर चलता है॥६०॥
साढ़े पाँच मासके बाद (बान्धवोंद्वारा प्रदत्त) ऊनषाण्मासिक पिण्ड और घटदानसे तृप्त होकर वह वहाँ आधे मुहूर्ततक विश्राम करके यमदूतोंके द्वारा डराये जानेपर दुःखसे काँपता हुआ उस पुरको छोड़कर- ॥६१-६२ ॥
चित्रभवन नामक पुरको जाता है, जहाँ यमका छोटा भाई विचित्र नामवाला राजा राज्य करता है॥६३॥
उस विशाल शरीरवाले राजाको देखकर जब वह (जीव) डरसे भागता है, तब सामने आकर कैवर्त (धीवर) उससे यह कहते हैं- ॥६४॥
हम इस महावैतरणी नदीको पार करनेवालोंके लिये नाव लेकर आये हैं, यदि तुम्हारा इस प्रकारका पुण्य हो तो (इसमें बैठ सकते हो) ॥६५॥
तत्त्वदर्शी मुनियोंने दानको ही वितरण (देना या बाँटना) कहा है। यह वैतरणी नदी वितरणके द्वारा ही पार की जा सकती है, इसलिये इसको वैतरणी कहा जाता है॥६६॥
यदि तुमने वैतरणी गौका दान किया हो तो नौका तुम्हारे पास आयेगी अन्यथा नहीं। उनके ऐसे वचन सुनकर प्रेत ‘हा दैव!’ ऐसा कहता है॥६७॥
उस प्रेतको देखकर वह नदी खौलने लगती है और उसे देखकर प्रेत अत्यन्त क्रन्दन (विलाप) करने लगता है। जिसने अपने जीवनमें कभी दान दिया ही नहीं है, ऐसा पापात्मा उसी (वैतरणी)-में डूबता है॥६८॥
तब आकाशमार्गसे चलनेवाले दूत उसके मुखमें काँटा लगाकर बंसीसे मछलीकी भाँति उसे खींचते हुए पार ले जाते हैं ॥ ६९ ॥
वहाँ षाण्मासिक पिण्ड खाकर वह अत्यधिक भूखसे पीड़ित होकर विलाप करता हुआ आगेके रास्तेपर चलता है॥ ७० ॥
सातवें मासमें वह बह्वापदपुरको जाता है और वहाँ अपने पुत्रोंद्वारा दिये हुए सप्तम मासिक पिण्डको खाता है॥७१॥
हे पक्षिराज गरुड! उस पुरको पारकर वह दुःखद नामक पुरको जाता है। आकाशमार्गसे जाता हुआ वह महान् दुःख प्राप्त करता है॥ ७२ ॥
वहाँ आठवें मासमें दिये हुए पिण्डको खाकर आगे बढ़ता है और नवाँ मास पूर्ण होनेपर नानाक्रन्दपुरको प्राप्त होता है॥७३॥
वहाँ क्रन्दन करते हुए अनेक भयावह क्रन्दगणोंको देखकर स्वयं शून्य हृदयवाला वह जीव दु:खी होकर आक्रन्दन करने लगता है॥७४॥
उस पुरको छोड़कर वह यमदूतोंके द्वारा भयभीत किया जाता हुआ दसवें महीनेमें अत्यन्त कठिनाईसे सुतप्तभवन नामक नगरमें पहुँचता है॥ ७५ ॥
वहाँ पुत्रादिसे पिण्डदान और जलांजलि प्राप्त करके भी सुखी नहीं होता। ग्यारहवाँ मास पूरा होनेपर वह रौद्रपुरको जाता है॥ ७६ ॥
और पुत्रादिके द्वारा दिये हुए एकादश मासिक पिण्डको वहाँ खाता है। साढ़े ग्यारह मास बीतनेपर वह जीव पयोवर्षण नामक नगरमें पहुँचता है॥ ७७॥
वहाँ प्रेतोंको दुःख देनेवाले मेघ घनघोर वर्षा करते हैं, वहाँपर दुःखी वह प्रेत ऊनाब्दिकश्राद्ध (-के पिण्ड)-को खाता है॥७८ ॥
इसके बाद वर्ष पूरा होनेपर वह जीव शीताढ्य नामक नगरको प्राप्त होता है, वहाँ हिमसे भी सौ गुनी अधिक (महान्) ठंड पड़ती है॥ ७९ ॥
शीतसे दुःखी तथा क्षुधित वह जीव (इस आशासे) दसों दिशाओं में देखता है कि शायद कहीं कोई हमारा बान्धव हो, जो मेरे दुःखको दूर कर सके॥८०॥
तब यमके दूत कहते हैं-तुम्हारा ऐसा पुण्य कहाँ है? फिर वार्षिक पिण्डको खाकर वह धैर्य धारण करता है॥८१॥
उसके बाद वर्षके अन्तमें यमपुरके निकट पहुँचनेपर वह प्रेत बहुभीतिपुरमें जाकर हाथभर मापके अपने शरीरको छोड़ देता है ॥ ८२ ॥
हे पक्षी! पुनः कर्मभोगके लिये अंगुष्ठमात्रके वायुस्वरूप यातनादेहको प्राप्त करके वह यमदूतोंके साथ जाता है॥ ८३॥
हे कश्यपात्मज! जिन्होंने और्ध्वदैहिक (मरणकालिक) दान नहीं दिये हैं, वे यमदूतोंके द्वारा दृढ़ बन्धनोंसे बँधे हुए अत्यन्त कष्टसे यमपुरको जाते हैं ॥ ८४ ॥
हे आकाशगामी! धर्मराजपुरमें चार द्वार हैं, जिनमेंसे दक्षिण द्वारके मार्गका तुमसे वर्णन कर दिया॥ ८५ ॥
इस महान् भयंकर मार्गमें भूख-प्यास और श्रमसे दुःखी जीव जिस प्रकार जाते हैं, वह सब मैंने बतला दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो॥८६॥
॥ इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें यममार्गनिरूपण नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥